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जितना ज्ञान है, उतना ही आत्मा है। आत्मा ज्ञान से कम अथवा जान से अधिक नहीं है।
अनार्य श्री कुन्टल भगवन्त सिद्ध.. हीणो जदि सो आदा, तण्ण्ण मचेदणं ण जाणादि। अहिओ वा णााओ, णाणेण विणा कहं णादि।।
(प्रवचनसार - २५) * अर्थात् : यदि वह आत्मा ज्ञान से हीन हो, तो वह ज्ञान अचेतन हुआ* * कुछ नहीं जानेगा और यदि आत्मा ज्ञान से अधिक हो, तो यह आत्मा * ज्ञान के बिना कैसे जानेगा?
अतः ग्रंथकार ने आत्मा को ज्ञान रूप कहा है। *३. निरंजन : निरंजन शब्द के अनेक अर्थ हैं। यथा- निष्कलंक,*
निर्दोष, मिथ्यात्व से रहित, सीधा-सादा आदि। द्रव्यकर्म, भावकर्म और * नोकर्म ये आत्मा पर लगे हुए कलंक हैं। ये कलंक शुद्धात्मा को नहीं होते। अतः वे निरंजन हैं। क्षुधा, तृषा. भय, द्वेष, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मृत्यु, खेद, स्वेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद ये अठारह दोष सम्पूर्ण संसारी जीवों में पाये जाते हैं। ये दोष शुद्धात्मा में नहीं पाये जाते हैं। अतः शुद्धात्मा निरंजन हैं।
शुद्धात्म जीव स्वभाव में रमणशील रहते हैं । वे मिथ्यात्व से रहित होते हैं। इसीलिए वे निरंजन कहलाते हैं।
मंगलाचरण के पश्चात् ग्रंथकार प्रतिज्ञा करते हैं कि मैं संक्षेप पद्धति को स्वीकृत करके योगशास्त्र को कहूँगा।
मन, वचन, काय की एकाग्रता को धारण करके ध्यान के द्वारा शुद्धात्मा से जुड़ जाना ही योग है, क्योंकि युज्यत इति योगः यह योग * शब्द का व्युत्पत्ति अर्थ है। आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए. आत्मा में * *लवलीन होकर परविषयक सम्पूर्ण विकल्पों से मुक्त हो जाना ही योग* * है। इसी योग को आगम की भाषा में ध्यान और अध्यात्म की भाषा में ** शुद्धोपयोग कहा जाता है। यही योग मोक्षसुख का प्रदाता होता है।
कैसा है यह शास्त्र ?
यह शास्त्र द्रव्यसंसार, क्षेत्रसंसार, कालसंसार, भवसंसार और भावसंसार इन पाँच संसारों का समूलोच्छेद करने वाला है। ********** **********
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