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३. कर्णयुगल : कर्ण में एक केन्द्र है अप्रमाद। यह संवेदन का केन्द्र है। इस केन्द्र पर चित्त को स्थिर करने से जागरुकता का विकास होता है। निद्रा पलायन कर जाती है। प्राचीन भारतीय परम्परा में कर्ण - वेधन करने की जो प्रथा थी, उसका यही रहस्य था । शरीरशास्त्र में भी कनपटी व उसके आसपास के क्षेत्र को बहुत महत्त्व प्राप्त है। उससे ध्यान की निर्विघ्न सिद्धि होती है।
१. नासिकाय: ध्यान के समय नासाग्रमुद्रा का होना अत्यावश्यक माना गया है। प्राणवायु शरीर में सम्पूर्ण व्याप्त है, परन्तु नासिका पर * उसकी उपस्थिति अधिक मानी गई है। इसलिए यहाँ ध्यानविदों ने प्राणकेन्द्र माना है । नासाग्र होते ही मूलनाड़ी तन जाती है, जिससे मूलबन्ध स्वतः ही हो जाता है। इस केन्द्र का ध्यान करने से जैविक शक्तियों का विकास होता है। इससे मनुष्य इच्छित कार्य को पूर्ण करने के तन्त्र को प्राप्त कर लेता है। यह ध्यान प्रसन्नतावर्धक है।
४. नाट ललाट के भीतर गहराई में ज्योतिकेन्द्र स्थित है। यह केन्द्र वासना, आवेग तथा विकारों को उपशम करने वाला है। यदि इस केन्द्र पर श्वेतवर्ण का ध्यान किया जावे, तो अधिक लाभप्रद व शीघ्र फलदायी है। उत्तेजना को समाप्त करके शान्त बनाने में इस केन्द्र का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इस पर ध्यान करने से असंयम विलय को प्राप्त होता है, हृदय परिवर्तित हो जाता है, मनस्ताप नष्ट होकर चिन्तन को सुव्यवस्थित दिशा प्राप्त होती है।
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9. सुख मुख में जिला के अग्रभाग में ब्रह्मकेन्द्र है। इस पर ध्यान करने से दमित वासनायें भी समाप्त हो जाती है। उसके फलस्वरूप ब्रह्मचर्य विशुद्ध हो जाता है, साधना में परिपक्वता आने लगती है तथा वाचासिद्धि हो जाती है। ऐसा साधक अपने ध्येय को अवश्य प्राप्त करता है। दृढ इच्छाशक्ति के विकास के लिए व इन्द्रियों के नियमन के * लिये इस केन्द्र पर चित्त का एकाग्र करना लाभप्रद माना गया है।
६. नाभि : नाभिस्थान पर मणिपुर नामक चक्र है। इस चक्र का ध्यान करने से आरोग्य का विकास होता है, ऐश्वर्य वृद्धिंगत होता है तथा आत्मसाक्षात्कार होता है। यहाँ तैजसकेन्द्र भी है। यह केन्द्र अग्नि का ******99**********
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