Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 129
________________ »H«ipan** ********«iped कहते हैं। शरीर में स्थित पीयूषग्रन्थि का सन्तुलन इसी केन्द्र से होता है। यदि चित्त को इस केन्द्र पर केन्द्रित किया जाये, तो चेतना का विकास समग्र रूप से हो जाता है। अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास, ज्ञान का विकास तथा तत्काल निर्णय की क्षमता इस केन्द्र के ध्यान से प्राप्त होती है। ******** ध्यान करते समय जबतक विषयों की वांछा होगी, तबतक ध्यान की सिद्धि नहीं होगी । अतएव ध्यान के समय वांछा से विहीन हो जाना चाहिये। साधक को यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि - मोक्षेऽपि यस्य नाकांक्षा, स मोक्षमधिगच्छति । इत्युत्यक्त्वाद्धितान्वेषी, कांक्षा न क्वापि योजयेत् ।। ( स्वरूप सम्बोधन २१) - : अर्थात् जिसकी मोक्ष में भी अभिलाषा नहीं होती, वह मोक्ष को प्राप्त करता है। अतः हितान्वेषक को कोई इच्छा नहीं करनी चाहिये। जब मोक्ष की वांछा भी मोक्ष के लिए अवरोधक है, तो अन्य वांछाएँ अवरोधक क्यों न होगी ? अतएव साधक को निर्वाछक बनना ही श्रेयस्कर है। ऐसे ध्यान की प्रशंसा करते हुए आ. पूज्यपाद लिखते हैं आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य, व्यवहारबहिः स्थिते । जायते परमानन्दः, कश्चिद्योगेन योगिनः ।। (इष्टोपदेश ४७ ) अर्थात् व्यवहार से रहित होकर जो आत्मानुष्ठान में निष्ठ हो चुका है, ऐसा योगी योग के प्रसाद से परमानन्द को प्राप्त कर लेता है। आत्मनिष्ठत्व परमानन्द का जनक शुद्धत्व का उत्पादक. परविकल्पों का संहारक तथा संसार का विनाशक है। अतः आत्मनिष्ठ होने का प्रयत्न करना चाहिये । ज्ञातव्य है कि यह छन्द आचार्य श्री शुभचन्द्र विरचित ज्ञानार्णव (२७/१३1 में भी पाया जाता है । **********99*** ११९ -

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