Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 130
________________ ****染染染路*** ** ******** शालांतशम् ******** ग्रंथाध्ययन का फल नीत :- आना पी गतिविना.. .. ज्ञानांकुशमिदं चित्त, प्रमत्तकरिणां कुशम् । * योऽधीतेऽनन्यचेतस्कः, सोऽभ्युपैति परं पदम्॥४४॥ * अन्वयार्थ : * (इदम्) यह (ज्ञानांकुशम्) ज्ञानांकुश (वित्त) मन के (प्रमत्त) प्रमत्त (करिणाम) * हाथी के लिए (कुशम्) अंकुश है। (यः) जो (अनन्यचेतस्कः) अनन्यचेता इसका (अधीते) अध्ययन करता है (सः) वह (परम्) परम (पदम्) पद * को {अभ्युपैति) प्राप्त करता है। अर्थ : मनरूपी प्रमत्त हाथी को वश करने के लिए यह ज्ञानांकुश अंकुश के समान है। * जो अनन्यचेता होकर इस ग्रंध का अध्ययन करता है, वह परम * पद को प्रात करता है। भावार्थ : इस कारिका में मन को पागल हाथी की उपमा दी गई है। * जब हाथी के गण्डस्थल से मद झरने लगता है, तब वह पागल * हो जाता है। सर्वत्र उत्पात मचाता है। बड़े-बड़े वृक्षों को उखाड़कर फेंक * * देता है। समक्ष में आये हुए मनुष्य अथवा प्राणियों के प्राणों का विघात *करता है। जोर-जोर से चिंघाड़ता रहता है। पागलपन में हाथी यमदूत * की तरह बन जाता है। * स्वच्छन्द मन भी पागल हाथी की तरह होता है। वह विषयवन * में इतस्ततः दौड़ लगाता है, आत्मा के सद्गुणरूपी वृक्षों को उखाड़कर * * फेंकता है। व्रत और संयम का विनाश करता है, असंयम की जोरदार * * चिंघाड़ करता है। ध्यान का घात करता है तथा पुण्य की लतिका को जड़मूल से उखाड़कर फेंक देता है। 1 ग्रंथकार ने सम्यग्ज्ञान को अंकश की उपमा दी है। जिसप्रकार मत्त हुए हाथी को कुशल महावत अंकुश के द्वारा * *अपने वश में करता है तथा उस पर सवारी करता है. उसीप्रकार संयम- * ********** १२० **********

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