Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 131
________________ ******* शालांकुशम् ***************** तपरूपी वैभव के धारक, दिगम्बर मुनिराज सम्यग्ज्ञानरूपी अंकुश के द्वारा मनरूपी हाथी को अपने वश में कर लेते हैं तथा मन पर सवार होकर मोक्ष नगर जाते हैं। इस ग्रंथ का नाम भी ज्ञानांकुश है। ग्रंथकार कहते हैं कि जो अनन्यचित्त वाला होकर अर्थात् एकाग्रमना होकर इस ग्रंथ का पठन-पाठन करता है, वह अवश्यमेव मनोकुंजर को अपने वश करके परमपद अर्थात् मोक्षपद को प्राप्त करता है। टीकाकार द्वारा अन्तिम मंगल सन्मति प्रभु को नमन करूं, मति सन्मति बन जाय । सन्मति गुरु, माँ शारदे, नमूं तुम्हारे पाय ।। आत्मतत्त्व के हेत ये. रचना गुण की खान । भूल चूक यदि हो कहीं, शोध पढ़ो धीमान।। समाप्तोऽयं ग्रन्थः विनय विनय धर्म का मूल है। विजय के कारण गुरु प्रसन्न होते हैं। प्रसन्न हुए गुरु अपने मुखारविन्द से शास्त्रों के रहस्यों को समझाते हैं। शास्त्र के रहस्यों को जानने से सम्यग्ज्ञान की वृद्धि होती है। ज्ञान के कारण जीव संसार, शरीर और भोगों से विरक होता है। विररकला के कारण जीब पर से उपरत होता है। पर से उपरत हो जाने पर ध्यान | उपलब्ध होता है। ध्यान से सुंदर और निर्जरा होती है। संतर और निर्जरा मोक्ष का कारण है। सारांश यह है कि विनय ही मोक्ष का कारण है । -**** १२१*****

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