Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 126
________________ ******** नांकुश ******** ध्यान के स्थान नेत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे। वक्त्रे नाभौ शिरसि ह्रदये तालुनि भ्रूयुगान्ते॥ ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तितान्यात्मदेहे। तिष्ठैकस्मिन् विगत विषयं चित्तमालम्बनीयम् *अन्वयार्थ : अमलमतिभिः) निर्मल बुद्धिधारी आचार्यों ने (आत्म) अपने (देहे) शरीर * में (नेत्रद्वन्द्व) नेत्रयुगल {श्रवणयुगले) कर्णयुगल (नासिकाग्रे) नासिकाग्र *{ललाटे) ललाट (वक्त्रे) मुख (नाभौ) नाभि (शिरसि मस्तक (हृदये) * * ह्रदय (तालुनि) तालु (भ्र-युगान्ते) भ्र-यगल (ध्यानस्थाननि) ध्यान के * *स्थान (कीर्तितानि) कहे है। (एकस्मिन्} एक स्थान पर (तिष्ठ) रह कर (विषयम्) विषय से (विगत) रहित (चित्तम्) चित्त का (आलम्धनीयम्) * अवलम्बन लेवें। * अर्थ : निर्मल बुद्धिधारी आचार्यों ने अपने शरीर में नेत्रद्वय, नासिका* H का अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु और भ्रू-युगान्त में ध्यान के स्थान बताये हैं। * हे योगी! तुम्हें ध्यान में बैठकर इन स्थानों में से किसी एक * स्थान पर विषयों की वांछा से रहित होकर अपना चित्त एकाग्र करना* * चाहिये। *भावार्थ : इस छन्द में ध्यान के १० स्थानों का वर्णन किया गया है। ... नेत्रयुगल : योगशास्त्रानुसार नेत्र चाक्षुष केन्द्रस्थान है। ध्यान की। मुद्रा में आँखें बन्द रखनी हो, तो सहजतया कोमलता से बन्द कर लेवें। * इस केन्द्र का ध्यान करने से ज्ञानतन्तु स्वयमेव सक्रिय हो जाते हैं, *जिससे ज्ञान विकसित होता है। दृष्टिकोण को निर्मल करने का कार्य * * इसी केन्द्र से होता है । **********[११६]**********

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