Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 124
________________ *******शानांकुश शानां कुशनम् ********* गंथकारणत्तादो। एदस्य परिहरणं णिग्गंथत्तं । णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादीगंथो, कम्मबंधकारणत्तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गंथत्तं । (धवला - ९ / ३२३) अर्थात् व्यवहारनय की अपेक्षा से क्षेत्रादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे आभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। निश्चयनय की अपेक्षा से मिथ्यात्यादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे कर्मबन्ध के कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। निर्ग्रन्थ का भाव अथवा कर्म निर्ग्रन्थता है। परिग्रह मकड़ी के जाल की भाँति है। जो जीव उस में एकबार भी उलझ जाता है, फिर वह अपने आप को मुक्त नहीं कर पाता । यही कारण है कि ध्यानसाधक का निर्ग्रन्थ होना आवश्यक है। ४. सभवाभाव: सम् धातु है । इसका अर्थ है सदृश, तुल्य, समान । यह पचादिगण का पाठ होने से नन्दिग्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः । इरा पाणिनीय सूत्रानुसार अच् प्रत्यय होने पर सम शब्द बनता है। सम शब्द से तल प्रत्यय करने पर समत शब्द बनता है तथा स्त्रीलिंग के अर्थ में टाप् प्रत्यय का प्रयोग करने पर समता शब्द की निष्पत्ति होती है। समता का अर्थ होता है एकरूपता । आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है जीविद मरणे लाभालाभे संजोग विप्पजोगे य। - बंधुरि सुह दुक्खादिसु समदा सामायियं णाम ।। २५ ।। (मूलाचार -१ / २५) इसीको शब्दान्तर करते हुए आचार्य श्री अमितगति लिखते हैंजीवित मरणे योग वियोग विप्रिये प्रिये । शत्रौ मित्रे दुःखे साम्यं सामायिकं विदुः । । ( अमितगति श्रावकाचार ६/३२) समता परिणाम जब मन में जागृत हो जायेंगे, तब उसीसमय मन से सम्पूर्ण विकल्प नष्ट हो जायेंगे। उस से इष्टानिष्ट का विकल्प नहीं हो सकता, राग व द्वेष से मुक्ति मिल जायेगी। समताभाव समस्त साधना की रीढ़ है। **************** ११४

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