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******** ज्ञानांकुशा ******** * अतः ध्यानसाधक में वैराग्य नामक गुण होना चाहिये। 1. तच्चविज्ञान : तत्वविज्ञान का अर्थ सम्यज्ञान है। ज्ञान के बिना * चारित्र निरर्थक है। ज्ञानवान् का चारित्र ही मोक्षफल को फलता है। ज्ञान * * के द्वारा आत्मा निज के हित व अहित को जानता है । साधना का लक्ष्य, * साधना की विधि, साधना में आवश्यक सावधानी इन सब बातों का बोध ॐ तत्त्वविज्ञान के द्वारा ही हो सकता है। अतः ध्यानसाधक में तत्वविज्ञान नामक गुण होना चाहिये।
३. निर्यन्यता: ग्रंथ का अर्थ परिग्रह है । परिग्रह के द्रव्य और भाव * ये दो भेद हैं । दोनों ही प्रकार के परिग्रह का त्याग करके परम निस्पृहता * को धारण करना ही निर्ग्रथता है । * निर्ग्रन्थ शब्द को परिभाषित करते हुए आचार्य श्री श्रुतसागर जी * लिखते ह . निम्रन्थाः परिग्रहरहिताः।
(मोक्षपाहुड़- ८०) इसीको स्पष्ट करते हुए आर्यिका ज्ञानमती लिखती है . * बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहग्रन्थिभ्यो निष्क्रान्तः निर्ग्रन्थः।
(नियमसार - ४४) *अर्थात् : जिनकी बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह की ग्रन्थियाँ विनष्ट हो* * चुकी हैं वे निर्ग्रन्थ हैं। * आचार्य श्री जयसेन का कथन है .
यथाजातरूपधरः व्यवहारेण नग्नत्वं यथाजातरूपं निश्चयेन तु स्वात्मरूपं तदित्थंभूतं यथाजातरूपं धरतीति यथाजातरूपधरः निर्ग्रन्थो जात इत्यर्थः।।
(प्रवचनसार - २०४) अर्थात् : व्यवहारनय से नग्नत्व यथाजातरूपपना है और निश्चय से * अपनी आत्मा का जो यथार्थ स्वरूप है वह यथाजात रूप है। साधु इन * दोनों को धारण कर निर्ग्रन्थ हो जाता है।
आचार्य श्री वीरसेन स्वामी का कथन है -
ववहारणयं पडुच्च खेत्तादी मिच्छत्तादी गंथो. अभंतर **********११३]**********
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