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(राजवार्तिक - ९/३४/४)* * अर्थात् : जैसे अग्नि से संतप्त लोहपिण्ड चारों तरफ से जल खींचता* * है, उसीप्रकार इन आतं, रौद्ररूप अप्रशस्त ध्यानों में परिणत आत्मा चारों * * ओर से कर्मरूपी जल खींचता है, कार्माणवर्गणाओं को ग्रहण करता है। * - ये दोनों संसार के कारण होने से त्याज्य हैं। 2. धर्मध्याम : जिस ध्यान में वस्तुस्वरूप का अथदा क्षमादि भावों का चिन्तन होता है उस ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं ।
श्री जिनसेनाचार्य का कथन है . बाहात्मिकभावानां, याथात्म्यं धर्म उच्यते । तद्धर्मादनपेतं, यद्धर्म्य तद्ध्यानमुच्यते।।
(हरिवंशपुराण - ५६/३५) * अर्थात् : बाह्य और आध्यात्मिक भावों का जो यथार्थ भाव है, वह धर्म के कहलाता है। उस धर्म से जो सहित हैं उसे घHध्यान कहते हैं।
शास्त्रार्थ की खोज, शील व्रतों का पालन, गुणानुराग आदि * सद्गुणों के कारण यह जीव के लिए परम्परा से मोक्ष का मार्ग है। * *४. शुक्लध्यान : जिस ध्यान के व्दारा आत्मा के निर्मल स्वभाव का * चिन्तन किया जाता है उस ध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं । आचार्य श्री अकलंक ने लिखा है .
शुचिगुण योगाच्छुक्लम्। यथा मलद्रव्यापायात् शुचिगुणयोगाच्छुक्लं वस्त्रं तथा * * तद्गुणसाधादात्म परिणामस्वरूपमपि शुक्लमिति * निरुच्यते
(राजवार्तिक - ९/२८/४)* * अर्थात् : शुचि गुण के योग से शुक्न होता है। जैसे - मैल हट जाने से * * वस्त्र शुक्ल (श्वेतवर्ण ) हो जाता है, उसीप्रकार गुणों के साधर्म्य से * निर्मल गुणरूप आत्मपरिणति भी शुक्ल कहलाती है।
यह ध्यान साक्षात् मोक्ष का कारण है।
आर्त और रौद्रध्यान का त्याग व धर्म और शुक्लध्यान के * आचरण का उपदेश जैनागम में दिया गया है। **********१११**********
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