Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 125
________________ **** ज्ञानाकुशम् आचार्य श्री शुभचन्द्र लिखते हैंसाम्यकोटिं समारूढो, यमी जयति कर्म यत् । निमेषान्तेन तज्जन्मकोटिभिस्तपसेतरः । । . ( ज्ञानार्णव- १९५८) अर्थात्ः समताभाव के अग्रभाग पर ( शिखर पर ) आरूढ़ हुआ योगी जिस कर्म को निमेष (नेत्र की दिमकार ) मात्र काल के भीतर क्षणभर में ही जीत लेता है, उसी को उक्त समताभाव से रहित जीव तपश्चरण के द्वारा करोड़ों जन्मों में जीत पाता है। यदि साधक में समताभाव नहीं होगा तो साधक प्रतिकूल परिस्थितियों में विलाप और अनुकूल परिस्थितियों में विलास करते हुए आत्मनिधि को भूल जायेगा । अतः साधक को समताभावी होना चाहिये। ५. पटीपहजय : आगन्तुक कष्टों को जैनागम में परीषह कहा जाता है । कर्मों का तीव्र विपाक इन परीषहों का मूल कारण है । परीषह आनेपर उन्हें समताभाव से सहन करने का नाम ही परीषजय है । परीषह के बाईस भेद हैं । यथा क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, नग्नता, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, सत्कार पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, और अदर्शन | परीषहों को क्यों सहन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य श्री उमास्वामी महाराज ने लिखा है मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः । (तत्त्वार्थसूत्र - ९/८ ) अर्थात् : संवर के मार्ग से च्युत न होने के लिए तथा कर्मों की निर्जरा के हेतु बाईस परीषह सहन करने योग्य हैं। परीषह सहन करने से साधना में अविचलता प्राप्त होती है. कष्ट सहन करने की ताकत आती है। शरीर के प्रति ममत्व कम होता है । आत्मा में रमण करने की पात्रता प्राप्त होती है । उपर्युक्त पाँच साधन जिनके पास हैं, वे ही सच्चे अर्थों में ध्यानी बन सकते हैं। **********994. ११५

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