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शागांकुशम्
ध्यान के हेतु
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वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं, नैर्ग्रथ्यं समभावना। जयः परीषहाणां च पञ्चैते ध्यान हेतवः ॥ ४२ ॥
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अन्वयार्थ :
(वैराग्यम्) वैराग्य ( तत्त्वविज्ञानम् ) तत्त्वविज्ञान (नैर्ग्रन्थ्यम् ) निर्ग्रथता (समभावना) समताभाव (च) और ( परीषहाणाम् ) परीषहों का ( जयः ) जीतना (एते) ये (पञ्च) पाँच (ध्यानहेतवः) ध्यान के हेतु हैं।
अर्थ : वैराग्य निर्ग्रशना तत्तविज्ञान, समभावना और परीषहजय ये पाँच ध्यान के हेतु हैं।
भावार्थ: इस कारिका में ध्यान की अवस्था में पहुँचने के लिए जिस पूर्व तैयारी की आवश्यकता होती है, उसका वर्णन किया गया है। १. वैराग्य: इष्टवस्तुओं में प्रीतिरूप लक्षण वाला राग तथा अनिष्ट वस्तुओं में अप्रीति लक्षण वाला द्वेष इन दोनों के कारण जीव कर्मों से बन्ध रहा है। अतः परवस्तुओं के प्रति आसक्ति भाव को कम करना । साधक के लिए अनिवार्य कर्तव्य है।
परवस्तुओं के प्रति राग से विरक्त हो जाना वैराग्य है।
आचार्य श्री अकलंक देव ने लिखा है - चारित्रमोहोदयाभावे तस्योपशमात् क्षयात् क्षयोपशमाद् वा शब्दादिभ्यो विरञ्जनं विराग इति व्यवसीयते । विरागस्य भावः कर्म वा वैराग्यम् ।
अर्थात् : चारित्रमोह के उदय का अभाव होने पर अथवा उसके उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के कारण शब्दादि पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त होना विराग है।
विराग का भाव अथवा कर्म वैराग्य कहलाता है।
संसार, शरीर और भोगों के पंक में उलझा हुआ जीव अपनी आत्मा का उद्धार नहीं कर पाता । परद्रव्य की आसक्ति मन को * चंचल बनाती है। मानसिक चंचलता के सद्भाव में ध्यान नहीं हो सकता, **********99**********
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