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******** illiAL******** * वाला ध्यान आतध्यान है। * यह ध्यान छठे गुणस्थानपर्यंत अवस्थित रहता है। इष्टवियोग,
अनिष्टसंयोग, पगड़ाचिन्तन और निदानबंध इन भेदों से युक्त यह आर्तध्यान
पापप्रयोगाधिष्ठान, नाना संकल्पों से युक्त, विषय-तृष्णा से व्याप्त, * * कषायस्थानों से युक्त, अशान्तिवर्धक तथा अज्ञानमूलक होने के कारण * * प्रमुखरूप से तिर्यंचगति का कारण है।
२. सौदध्यान : जिस ध्यान में अत्यन्त क्रूर परिणाम होते हैं ध्यान को रौद्रध्यान कहते हैं ।
रौद्र शब्द का अर्थ करते हुए श्री शुभचन्द्राचार्य लिखते हैं . रुद्रः क्रूराशयः प्राणी रौद्रकर्मास्य कीर्तितम् । रुद्रस्य खलु भावो वा रौद्रमित्यभिधीयते ।।
(ज्ञानार्णव - २४/२/१२२४) * अर्थात् : रुद्र का अर्थ यहाँ दुष्ट अभिप्राय वाला प्राणी है। उस रुद्र प्राणी का जो कर्म ( क्रिया) है, उसे रौद्र कहा गया है। अथवा उक्त रुद्र प्राणी का जो भाव है उसे रौद्र कहा जाता है।
उस रौद्रतायुक्त ध्यान को रौद्रध्यान कहते हैं। श्री शुभचन्द्राचार्य का मत हैं कि . हिंसाकर्मणि कौशलं निपुणता पापेपदेशे भृशम् । दाक्ष्यं नास्तिकशासने प्रतिदिनं प्राणातिपाते रतिः।। संवासः सह निर्दयैरविरतं नैसर्गिकी क्रूरता।
यत्स्याहेहभृतां तदन्न गदितं रौद्रं प्रशान्ताशयैः।। * अर्थात् : प्राणियों के जो हिंसा करने में कुशलता, पाप के उपदेश में * * अतिशय प्रवीणता, नास्तिकमत के प्रतिपादन में चतुरता, प्रतिदिन प्राणधात * * में अनुराग, दुष्टजनों के साथ सहवास तथा निरंतर जो स्वाभाविक दुष्टता रहती है, उसे यहाँ वीतराग महात्माओं ने रौद्रध्यान कहा है।
आचार्य श्री अकलंकदेव लिखते हैं - * एवमुक्ताप्रशस्तध्यान परिणतात्मा तप्तायस्पिण्ड इगोदकं* *कर्मादत्ते। **********[११०****** ***
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