Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 119
________________ ***** ※※※杂杂杂杂杂杂米卷卷卷米杂杂杂杂杂杂法 ******** ******* ध्यान के भेद * आर्त्तरौद्रं परित्यज्य, धर्मशुक्लं समाचरेत् । ताभ्यां परतरं नास्ति, परमात्यप्रभाषितम् ॥४१॥ * अन्वयार्थ : **(आत द्रम् आर्त और रौद्रध्यान को (परित्यज्य) छोड़कर (धर्मशुक्लम) * * धर्म और शुक्लध्यान का (समाचरेत् आचरण करें। (ताभ्याम्) उन दोनों * * से (परतरम) श्रेष्ठ (ध्यान) (नास्ति) नहीं है ऐसा (परमात्म) परमात्मा ने (प्रभाषितम्) कहा है। * अर्थ : आर्त और रौद्र, इन दो दुर्ध्यानों को छोड़कर धर्म और शुक्लध्यान * * का आचरण करें। उन दोनों ध्यान से श्रेष्ठ कुछ नहीं है . ऐसा परमात्मा * * ने कहा है। * भावार्थ : मन को किसी एक विषय में एकाग्र करने का नाम ही ध्यान * * है । अथवा स्थिर ज्ञान को ही ध्यान कहा जाता है । आचार्य श्री उमास्वामी जी महाराज ध्यान के भेदों को बताते हुए लिखते हैं - आर्तरौद्रधर्म्यशक्लनि। (तत्त्वार्थसूत्र - ९४२८) * अर्थात् : आर्त, रौद्र , धर्म और शुक्ल ये चार ध्यान हैं। *१. आध्यान : जिस ध्यान में तीव्र दुःखयुक्त परिणाम होते हैं उसे आर्तध्यान कहते हैं। आचार्य श्री अकलंकदेव ने लिखा है . ऋतमर्दनमार्तिर्वा तत्र भवमातम् । ऋतं दुःखम् अथवा अर्दनमार्तिर्वा तत्र भवमातम्।। * ( राजधर्तिक ) * अर्थात् : ऋत, दुःख और अर्दन को अर्ति कहते हैं और अर्ति से होने * **********[१०९/********** *******************************

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