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सच्चा योगी। * अरिषड्वर्गमाश्रित्य, भूपोऽपि न च भूपतिः ।। * अरि षड्धर्ममाश्रित्य, योगो योगो न योगिनाम् । । ४०॥ * अन्वयार्थ : * {षड्वर्गम्) षड्वर्ग (आश्रित्य) आयित (भूपः) राजा (अपि) भी (भूपतिः} * राजा (न) नहीं है (च) और (षइधर्मम) षइधर्म (अरि) शत्रु के (आश्रित्य)*
आश्रित (योगः) योग (योगिनाम्) योगियों का (योगः) योग (न) नहीं है। * अर्थ : जो राजा षड्वर्ग रिपुओं के आश्रित हो गया है, वह राजा राजा * नहीं है। जो योग षड्धर्म रूपी शत्रुओं के आश्रित हुआ है, वह योगियो
का योग नहीं है। * भावार्थ : राजनीतिशास्त्र में राज्यसंचालन, राज्य का विकास आदि की * * विधियाँ समझायी पदी है।तिशास्त्रानुसार राजा मे शूरता. धैर्य * प्रजावत्सलत्व, न्यायप्रियत्व आदि अनेक गुण विद्यमान होने चाहिये।
राजा यदि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य इन हिपुओं से * संयुक्त है, तो वह राजा नहीं है क्योंकि वह षट्-रिपुओं के कारण से. * अपने न्यायप्रियता आदि गुणों की सुरक्षा नहीं कर पाता है।
वैसे ही यदि योगी योग के काल में दया, दान, पूजा, सेवा, यम और नियमादि षडावश्यक क्रियाओं का आश्रय लेता है, तो उसका योग मोक्ष को देने वाले अभेद रत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग की रक्षा नहीं कर पाता
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शंका : षडावश्यक कर्मों को अरि षड्धर्म क्यों कहा है ? * समाधान : भेदरत्नत्रय विकल्पात्मक है एवं विकल्प रागात्मक होते हैं। *
यदि षडावश्यकरूप भेदरत्नत्रय का सेवन किया जायेगा, तो शुद्धोपयोग *
रूप निश्चयध्यान में बाधा उत्पन्न होगी। जो बाधा उत्पन्न करते हैं, लोक 2 में उन्हें शत्रु माना जाता है। षडावश्यक ध्यान में विकल्परूप बाधा के * उत्पादक हैं, अतः वे शत्रु हैं। * शंका : अवश्य करणीय कार्य आवश्यक कहलाते हैं, यह परिभाषा * **********[१०७/**********