Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 115
________________ ******** लाकुशम् ******** परमतत्त्व का लक्षण यावन्निवर्तते चिन्ता, तावत्पारं न गच्छति । विद्यते हि परं तत्त्वं, मनोऽपोहित कायवत् ॥३९॥ * अन्वयार्थ : * (यावत्) जबतक (चिन्ता चिन्ता (निवर्तते) रहती है (तावत्) तबतक *(पारम्} पार को (न) नहीं (गच्छति) जाता है। (हि) निश्चय से {परम्) * परम (तत्त्वम्। तत्त्व (मनः) मन से (अपोहित) रहित (कायवत) काय के * समान (विद्यते) रहता है। * अर्थ : जबतक चिन्ता रहती है, तबतक यह जीव भव से पार नहीं हो * * सकता। निश्चय से परमतत्त्व मन से रहित काया के समान निश्चेष्ट रहता है। * भावार्थ : आचार्य श्री पद्मनन्दि जी ने बड़ा ही सुन्दर लिखा है हे चेतः किमु जीव तिष्ठसि कथं चिन्तास्थितं सा कुतो। राग द्वेष वशान्तयोः परिचयः कस्माच्च जातस्तव ।। * इष्टानिष्ट समागमादिति यदि श्वधं तदावां गतौ। नोचेन्मुञ्च समस्तमेतदचिरदिष्टादि संकल्पनम् ।। (पंचविंशतिका - १/१४५) * अर्थात् : जीव - हे चित्त! मन - क्या है जीव? जीव - तुम कैसे हो? मन - मैं चिन्ता में स्थित हूँ। जीव - चिन्ता की उत्पत्नि किसतरह हुई है ? मन - राग-द्वेष के वश से चिन्ता उत्पन्न हुई है। जीव - तुम्हारा परिचय राग-द्वेष से किसतरह हो गया? । मन - इष्ट-अनिष्ट वस्तुओं के संसर्ग से राग-द्वेष हुआ है। जीव - हे चित्त! यदि ऐसा है, तो हमें नरकगति में जाना **********१०५]**********

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