Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 113
________________ 染染染法染染染染染染染染際學部 ********ालाकृष्य ******** निश्चय ध्यान * ऊर्ध्वश्वासविनिर्मुक्तमधःश्वासविवर्जितम्। मध्यशून्यं पदं कृत्वा, न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥३८॥ * अन्वयार्थ : * {ऊर्ध्वश्वास) ऊर्ध्वश्वास से (विनिर्मुक्तम्) मुक्त (अधःश्वास) अधोश्वास * * से (विवर्जितम्) रहित (मध्य) मध्य (पदं) स्थान को (शून्यम्) शून्य * * कृत्वा) करके (किञ्चित्) कुछ (अपि) भी (म) नहीं (चिन्तयेत्) सोचें। * अर्थ : ऊर्ध्वश्वास को ऊपर छोड़कर अधोश्वास को नीचे रोककर तथा * * मध्य के पद को शून्य करके कुछ भी चिन्तन न करें। भावार्थ : योगशास्त्र में ध्यान करते समय प्राणायाम को बहुत महत्त्व * दिया गया है। इस क्रिया में श्वासोच्छवास पर अनुशासन करना होता * * हैं। श्वास किस तरह लेना है ? श्वास को कब लेना है अथवा छोड़ना* * है ? श्वास को कब और किस तरह रोकना है ? यह सब विषय T प्राणायाम के अन्तर्गत आते हैं। प्राणायाम के फल का वर्णन करते समय आचार्य श्री शुभचन्द्र लिखते हैं : स्थिरीभवन्ति चेतांसि, प्राणायामावलम्बिनाम् । जगद् वृत्तं च निःशेषं, प्रत्यक्षामिवजायते ।। (जानार्णव - २६/५४) अर्थात् : जो प्राणायाम का अवलम्बन करने वाले पुरुष हैं, उनके चित्त स्थिर हो जाते हैं। चित्त स्थिर हो जाने से ज्ञान प्राप्त होता है। उससे जगत् के समस्त वृत्तान्त प्रत्यक्ष के समान हो जाते हैं। * योगशास्त्रानुसार ध्यायक ऊर्ध्वश्वास को ऊपर की ओर ही रोक * रखें और अधःश्वास को नीचे रोक लेवें। इसतरह मध्यस्थान रिक्त हो * जायेगा। इस प्रक्रिया में किसी भी प्रकार का चिन्तवन करना आवश्यक नहीं है। **********[१०३******** ※路路路路路路路路路路路路路路路路杂杂杂珠路路路路路杂杂杂杂杂際恭**

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