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******** ााणपुशता ********
कई लोग ऐसा मानते हैं कि . * १. ध्यान के समय में रंगों का ध्यान करना चाहिये ।
२. ध्यान के समय में ईश्वर का ध्यान करना चाहिये । ३. ध्यान के समय में किसी बिन्दू का ध्यान करना चाहिये । ४. ध्यान के समय में किसी केन्द्र का ध्यान करना चाहिये ।
५. ध्यान के समय में नाच-कूद कर मन को एकाग्र करना चाहिये। * * उनकी यह मान्यता युक्तियुक्त नहीं है। उन्होंने ध्यान को क्रिया
मानने की भूल की है। ध्यान अन्तरंग तप है। जो अन्तरंग है, उसकी * क्रिया नहीं की जाती, अनुभव किया जाता है। अनुभव स्वभाव है. * अवस्था है . क्रिया नहीं। जबतक सम्पूर्ण संकल्प और विकल्प समाप्त * नहीं हो जाते, तबतक्र ार की कलाम सार्थ है! * शंका : जैनागम में भी ध्यान के समय में द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन
करने का उपदेश दिया गया है। इस उपदेश को भी उचित कैसे माना जा * सकता है ? * समाधान : मन क्रिया की भाषा समझता है, क्योंकि वह सतत * क्रियाशील है। उसे आजतक निष्क्रियता का पाठ पढ़ाया नहीं गया। * अनादिकालीन ये संस्कार एकाएक नहीं मिटते। उसके लिए उचित प्रयत्न * करने की आवश्यकता होती है।
इसे यूँ समझो कि कोई वाहन प्रति घण्टा सौ किलोमीटर की गति से चल रहा है। यदि उस वाहन को रोकना है, तो पहले उसकी * गति कम करनी पडेगी। उसीतरह मन अति चपलता से विषय-कषायों में * भ्रमण कर रहा है। उसकी गति को कम किये बिना उसको रोकना संभव * * नहीं है। बारह भावनाओं का चिन्तन मन की गति को कम करने का * * साधन है। * चंचल चित्त को बारह भावनाएँ एक दिशा देती है। फलस्वरूप * मन के असंख्यात विकल्पों के स्थान पर कुछ विकल्प ही शेष रहते हैं। * वे विकल्प भी शनैः शनैः विलीन होने लगते हैं। अतः अनुप्रेक्षाओं का * चिन्तन ध्यान की पूर्व तैयारी है। जिन्हें निजस्वरूप में लीन रहने की
अभिलाषा है, जो मुक्तिपथ के राही हैं, उन्हें चाहिये कि वे अपने आत्मा * में स्थिर हो जाये। शेष सम्पूर्ण विकल्प स्वयं ही तिरोहित हो जायेंगे। **********१०४**********