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******** जातमिति ज्ञातव्यम् ।
(बृहद्रव्यसंग्रह १४ )
अर्थात् : वह जो किंचित् न्यूनता है, सो शरीरांगोपांग कर्म से उत्पन्न * नासिका आदि छिद्रों के अपूर्ण होने पर जिस क्षण में सयोगी के अन्त समय में तीस कर्म प्रकृतियों के उदय का नाश हुआ था, उनमें अंगोपांग कर्म का भी विच्छेद हो गया। अतः उसीसमय ( किंचित् अनत्व ) हुआ है ऐसा जानना चाहिये।
इस श्लोक में शरीरप्रमाणत्व को ध्यान में रखकर कायप्रमाणम् यह विशेषण दिया है।
* २. व्योमरूप : व्योम का अर्थ आकाश है। लोकपूरण नामक केवली समुद्घात की अपेक्षा से व्योमरूप यह विशेषण दिया गया है।
ज्ञानांकुशम *********
आकाश के समान शुद्धजीव भी अमूर्तिक होते हैं। इसलिए शुद्धजीव व्योमरूप हैं।
३. निरंजन: मंगलाचरण काव्य में इसका विस्तार किया गया है। आत्मा की भावना का फल बताते हुए आचार्य श्री योगीन्द्रदेव
लिखते हैं
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भव तणु भोय विरत मणु जो अप्पा झाएइ । तासु गुरूक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टे ||
(परमात्मप्रकाश
१/३२)
अर्थात् जो जीव संसार, शरीर और भोगों में विरक्तमना होकर, निज . शुद्धात्मा का चिन्तवन करता है, उसकी संसाररूपी मोटी बेल विनाश को प्राप्त हो जाती है।
इस सृष्टि में एक नियम है कि जीव जैसी भावना करता है. वैसा ही बन जाता है। जो आत्मा की भावना करता है वह एकदिन अवश्य ही आत्मा के स्वरूप को प्राप्त कर ही लेता है। आत्मा का स्वरूप ज्ञान ही है। इसलिए ग्रंथकार लिखते हैं कि जो आत्मभावना करता है, वह अवश्य ही ज्ञान को (केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले भव्यजीव को आत्मभावना अवश्य ही करनी चाहिये ।
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