Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 94
________________ ******** ज्ञान * ****** * प्रभात और अन्धकार प्रभातं योगिनो नित्यं, ज्ञानादित्यो ह्रदि-स्थितः। * इतरेषां नराणां च, न प्रभातं कदाचन ॥३१॥ * अन्वयार्थ : *(हदि) हृदय में (ज्ञानादित्यः) ज्ञानरूपी सूर्य (स्थितः) स्थित है ऐसे * योगिनः) योगियों के लिए रनित्यम्) नित्य (प्रभातम्) प्रभात है (च) और है (इतरेषाम्) इतर (नराणाम्) मनुष्यों को (प्रभातम्) प्रभात (कदाचन) * कभी भी (न) नहीं है। * अर्थ : योगियों के हृदय में ज्ञानसूर्य दैदीप्यमान है, अतः उनके लिए * ** नित्य ही प्रभात है। अन्य व्यक्तियों के लिए कभी भी प्रभात नहीं है। * * भावार्थ : सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद ज्ञान की आराधना करनी * * चाहिये। स्व और पर पदार्थों के स्वरूप को प्रकट करने के लिए । सम्यग्ज्ञान सूर्य के समान है। जैसे सूर्य अपनी सहस्त्र रश्मियों के माध्यम से जगत् के सम्पूर्ण * पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसीप्रकार ज्ञान भी अपनी कलाओं के * माध्यम से प्रत्यक्ष और परोक्षभूत पदार्थों को प्रकाशित करता है अर्थात् * ******** 染杂杂杂杂杂*****孝宗崇华崇路路路路路法染染染染染染染杂杂杂杂杂杂费 * जानता है। दोषा यानि रात्रि। जैसे सूर्य दोषाच्छेदक है, वैसे ही ज्ञान भी मोहादि का उच्चाटन करता है। अतः ज्ञान भी दोषाच्छेदक है। * जैसे सूर्य तम का समूलोछेद करता है, उसीप्रकार ज्ञान भी तम * अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्मों का समूलोच्छेद करता है। * जैसे सूर्योदय होने पर लोग निद्रा को तज देते हैं, उसीप्रकार * * ज्ञान का सूर्योदय होने पर ज्ञानी जीव मोहनिद्रा को तज्ञ देते हैं। * जैसे सूर्योदय होने पर मार्ग स्पष्टतया दिखने लगता है, उसीप्रकार * ज्ञानादित्य का उदय होने पर मोक्षमार्ग स्पष्टतया दिखने लगता है। * जैसे सूर्य कमलों को विकसित करता है, उसीप्रकार ज्ञान * आत्मा के श्रद्धा, तप, चारित्रादि सदगुणों को विकसित करता है। * **********८४**********

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