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ज्ञालांकुशम्
ब्रह्मनिष्ठकों की दशा
आत्मकर्मपरित्यज्य, परदृष्टिं विशोधयेत् । यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परचिन्तया ॥३३॥
अन्वयार्थ :
( आत्मकर्म) आत्मकर्म को अर्थात् भावकर्म को (परित्यज्य ) छोड़कर (परदृष्टिम् ) परदृष्टि को (विशोधयेत् ) विशुद्ध करना चाहिये । (ब्रह्मनिष्ठानाम्) बह्मनिष्ठ (यतीनाम्) यतियों को (तथा) उस (परचिन्तया) , परचिन्ता से (किम् ) क्या प्रयोजन है ?
अर्थ : आत्मकर्म को छोड़कर परदृष्टि को विशुद्ध करना चाहिये । ब्रह्मनिष्ठक यतियों को पर की चिन्ता से क्या प्रयोजन ? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
भावार्थ: आत्मा अनेक शक्तियों का पिण्ड है। उनमें एक वैभाविक शक्ति है। स्वभावादन्यथा भवनं विभावः (आप्तपरीक्षा) स्वभाव से अन्यथा होना विभाव है। जिस शक्ति के निमित्त से आत्मा में विभावभाव होते हैं, उसे वैभाविकशक्ति कहते हैं। जैसे विद्युत् के संसर्ग से हीटर गर्मी और कूलर शीत को उत्पन्न करता है, उसीप्रकार विभावपरिणति के कारण इष्ट में राग व अनिष्ट में द्वेष उत्पन्न होता है। इन विभावों को ही परमागम में भावकर्म कहते हैं। वे आत्मोपयोग का विभावरूप में परिणमन होने के कारण आत्मा के हैं ऐसा अशुद्धनिश्चयनय कहता है।
इस कारिका में भावकर्मों को ही आत्मकर्म कहा गया है। आत्मकर्मपरित्यज्य ( आत्मकर्म को छोड़कर) इष्टानिष्ट • पदार्थों में की गई राग और द्वेषमय प्रवृत्ति आत्मा को निज स्वभाव से दूर 'हटाती है। निज परिणति से दूर हटना ही कर्म के बन्ध का कारण है। ये आत्मकर्म आत्मा को चिद्रूप से विद्रूप करने वाले हैं। अतएव अध्यात्मपथ के पथिक को इनका त्याग करना अत्यावश्यक है।
परदृष्टि विशोधयेत् - (परदृष्टि को विशुद्ध करें) मिथ्यात्वकर्म के तीव्र उदय से व ज्ञानावरण कर्म के उदय का निमित्त ********************
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