Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 110
________________ ******** जलांकुशम् ******* रोग होते हैं, फिर समस्त शरीर में कितने रोग होगें ? सो तू बता । इसी बात को अन्य पद्धति से समझाते हुए आचार्य श्री शिवार्य लिखते हैं जदि रोगा एक्कम्मि चेव अच्छिम्भि होंति छण्णउदी । सव्वम्मि दाहं देहे होदव्वं कदिहिं रोगेहिं || (भगवती आराधना १०६१) में मानवें रोग उत्पन्न होते हैं, तब सम्पूर्ण देह अर्थात् एक में कितनी व्याधियाँ होगी ? शरीर में होने वाले पूर्ण रोगों की संख्या बताते हुए आचार्य श्री शिवार्य लिखते हैं - पंचेव य कोडीओ भवंति तह अट्ठसट्ठिलक्खाई। णव णवदिं च सहस्सा पंचसया होंति चुलसीदी। । (भगवती आराधना १०६१) अर्थात् : पूर्ण शरीर में पाँच करोड़ अड़सठ लाख निन्यानवे हजार पाँच सौ चोरासी रोग होते हैं। शरीर केवल रोगों से ही सहित हो ऐसा नहीं अपितु वह अत्यंत मलिन भी है। सम्पूर्ण समुद्र के जल से भी यदि उसे साफ किया जाये. 'तो भी वह स्वच्छ नहीं हो सकता। आत्मा अत्यन्त निर्मल है। उसमें किसी प्रकार का मैल नहीं है। पूर्ण ज्ञानानन्दस्वरूपी तथा अनन्तगुणरूपी शरीर से वह युक्त है। आत्मा में जो कुछ भी द्रव्य भाव और नोकर्म रूप मलिनता परिलक्षित हो रही * है, वह सब पुद्गल द्रव्य की संगति करने का दुष्फल है। स्वभावतः आत्मा शुद्ध है। r देह मलिन है, मलिन था और मलिन ही रहेगा। आत्मा पवित्र है, पवित्र था और पवित्र ही रहेगा। शरीर अपनी मलिनता नहीं छोड़ता है, अतः उसे पवित्र नहीं किया जा सकता। आत्मा पवित्र है, अतः उसे पवित्र करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसलिए ग्रंथकार कहते हैं कि फिर किसे व कैसे शुद्ध किसी को भी शुद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। *****00********** M करेंगे ?

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