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ज्ञानांकुशम् ****
अशुचित्वभावना
अत्यन्तमलिनो देहो, देही चात्यन्त निर्मल: उभयोरन्तरं दृष्ट्वा, कस्य शौचं विधीयते ॥ ३६ ॥
अन्वयार्थ :
(देहः) देह (अत्यन्त ) अत्यन्त (मलिनः ) मलिन है (च) और (देही) आत्मा (अत्यन्त ) अत्यन्त ( निर्मलः) निर्मल है। (उभय) दोनों में (अन्तरम्) अन्तर को (दृष्ट्वा ) देखकर ( कस्य) किसकी (शौचम् ) शुद्धि (विधीयते) की जाये ?
अर्थ: देह अत्यन्त मलिन है और आत्मा अत्यन्त निर्मल है। दोनों में अन्तर को देखकर किसकी शुद्धि की जाय ? किसी की भी नहीं । भावार्थ : इस कारिका में अशुचि भावना का वर्णन किया गया है। शरीर अशुद्ध हैं, क्योंकि
१. शरीर की उत्पत्ति अशुद्ध पदार्थों से हुई है।
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माता का रज और पिता का वीर्य इन दो पदार्थों से शरीर की उत्पत्ति का प्रारंभ हुआ। माता के द्वारा खाये हुए अन्न की झूठन को पेट में ग्रहण कर यह पुष्ट हुआ तथा बाहर निकलने का स्थान भी माता का मूत्रस्थान था। इसतरह शरीर की उत्पत्ति अशुद्ध पदार्थों से हुई है। आचार्य श्री शिवार्य लिखते हैं
देहस्य सुक्क सोणिय असुई परिणामिकारणं जह्या ।
देहो वि होइ असुई अमेज्झधदपूरवो व तदो ।। (भगवती आराधना
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अर्थात् : देह की उत्पत्ति का कारण महान अशुचिस्वरूप माता का रुधिर तथा पिता का वीर्य है। जैसे मलिन वस्तु से निर्मित घेवर मलिन होता है, उसीप्रकार अशुभ बीज से उत्पन्न शारीर अशुभ है। २. शरीर में अपवित्र पदार्थ रहते हैं।
इस शरीर में एक अंजुलि प्रमाण मेद नामक धातु है, उतना ही
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