Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 106
________________ ******** kolijशान! ******** *कर्म आत्मा से पृथक ही हैं। जैसा मिला हुआ दूध और पानी एक रूप * प्रतिभासित होता है, उसीतरह मिला हुआ जीव और देह एक रूप प्रतिभासित होता है। परन्तु वस्तुस्वरूप का चिन्तन करने पर उनका * अन्यत्व स्पष्ट हो जाता है। पण्डितप्रवर दौलतराम जी ने लिखा है . जल पय ज्यों जिय तन मेला, पै भिन्न भिन्न नहिं भेला। ज्यों प्रकट जुदै धन धामा. क्यों व्हँ इक मिलि सत रामा।। (छहढ़ाला - ५/७) अर्थात् : जब एक-सा प्रतिभासित होने वाला शरीर ही आत्मा का नहीं है, तब जो पदार्थ प्रत्यक्ष में ही पर हैं - ऐसे माता-पिता आदि परिवार जन अथवा मित्रादि आत्मीयजन हमारे अनन्य कैसे हो सकते हैं ? संसारी जीवों का परस्पर सम्बन्ध कैसा है ? इसको दृष्टान्त * पूर्वक समझाते हुए पूज्यपादाचार्य लिखते हैं - दिग्देशेभ्यः खगा एत्य, संवसन्ति नगे- नगे। स्व-स्व कार्य वशाधान्ति, देशे दिक्षु प्रगे-प्रगे।। (इष्टोपदेश -९) * * अर्थात् : दिशा-विदिशाओं से पक्षीगण आकर रात्रिकाल में एक वृक्ष * * पर ठहर जाते हैं और सुबह वे अपनी-अपनी इच्छानुसार अलग-अलग दिशाओं में उड़ जाते हैं। उसीप्रकार कर्मजनित सम्बन्धों को यह जीव प्राप्त करता है। ये * सम्बन्ध स्थायी नहीं हैं, क्योंकि समयानुसार उनमें विच्छेद भी हो जाता * *है। जिनसे इस जीव का तादात्म्य सम्बन्ध है, वे ही जीत के हैं। आचार्य श्री अमितगति ने लिखा है . एकः सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मलः साधिगमः स्वभावः। बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वताः कर्मभवाः स्वकीयाः।। **********[९६ ********** 路路路路苏染染染

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