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(त्रिशंतिका . २६) * * अर्थात् : मेरा आत्मा एक है, शाश्वत है और निर्मल ज्ञानस्वभावी है।* * समस्त परद्रव्य कर्म से उत्पन्न होने के कारण मुझसे पर हैं।
यह जीव संसार में अकेला आता है । उसके व्दारा पूर्व में * * उपार्जित किये गये कर्म ही उसके साथ आते हैं : उन्हीं के कारण जीट - सुख या दुःख को प्राप्त करते हैं | कर्म के कारण प्राप्त होने वाले संयोगों
अथवा वियोगों को यह जीव अपना मानकर शुभ अथवा अशुभविकल्प * करता है । इन शुभाशुभ परिणामों से जीव तीत संक्लेशित होता हुआ * पुनः घोर कर्मों को बान्धता है । इससे बचने के लिए अन्यत्वभावना का * * चिन्तन करते रहना साधक के लिए आत आवश्यक है। B अन्यत्वभावना का चिन्तन करते रहने से साधक को संसार की * यथार्थता का बोध होता है । यह बोध उसे अनुकूल और प्रतिकूल * परिस्थितियों में साधना के पथ से भटकने नहीं देता है । जब स्व और * * पर की भिन्नता का बोध हो जाता है. तब श्रद्धा की समीचीनता को बल * मिलता है । इसीको ही आगमभाषा में दर्शनविशुद्धि कहते हैं । इसी* * दर्शनविशुद्धि के बल पर जीव तीर्थकर जैसी परम पुनीत तथा जीवोद्धारिणी
प्रकृति का बन्ध कर लेता है। * स्व और पर का यथार्थ ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है ! अन्यत्वभावना * का चिन्तन करते रहने से ज्ञान में विशुद्धि आती है । * परद्रव्य के संयोग और वियोग होने पर जो राग-व्देष की * परिणति उत्पन्न होती है, वह चारित्र की विघातिका है । अतः चरित्र की शुद्धि के लिए भी अन्यत्तभावना का चिन्तन करते रहना चाहिये ।
संक्षेप से अन्यत्व भावना के पाँच फल हैं। यथा - १. स्व-पर का यथार्थ बोध होता है
परद्रव्यासक्ति कम होती है।
मोह का विलय होता है। ४. स्वात्मभावना का जागरण होता है। ५. कर्मक्षय द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
स्व-पर भेदविज्ञान को प्राप्त करके बुद्धिमान जीव निरन्तर* * परद्रव्य निरपेक्ष अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करते हैं। ********** ९७]**********
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