Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 105
________________ ******** iperf ******* अन्यत्वभावना * अन्यच्छरीरमन्योऽहमन्ये सम्बन्धिबान्धवाः ।। एवं स्वं च परं ज्ञात्वा, स्वात्मानं भावयेत्सुधीः॥३५॥ * अन्वयार्थ : (शरीरम्। शरीर (अन्यत्) अन्य है (अहम्) मैं (अन्यः) अन्य हूँ (सम्बन्धिा । * सम्बन्धिजन और (बान्धवाः) बन्धुजन (अन्ये) अन्य है। (एवं) इसप्रकार *(स्वम्) स्व को (च) और (परम्) पर को ज्ञात्वा) जानकर (सुधीः)* * बुद्धिमान (स्वात्मानम्) स्वात्मा की (भावयेत्) भावना करें। अर्थ : मैं अन्य हूँ, यह शरीर और ये बन्धु-बान्धव अन्य हैं। इसप्रकार : * स्व और पर को जानकर बुद्धिमान जीव आत्मा की भावना करें। * भावार्थ : इस कारिका में अन्यत्वभावना के चिन्तन का उपदेश दिया गया ************* है । आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने लिखा है . अण्णं इमं शरीरादिगं पि होज्ज बाहिरं दव्व। णाणं दंसणमादा एवं चिंतेहि अण्णत्तं।। (बारमाणुवेक्खा - २३) * अर्थात् : ये शरीरादिक बाह्य द्रव्य मेरे नहीं हैं। मेरे से पृथक अन्य हैं। ज्ञानदर्शन स्वभावी आत्मा ही मेरा है। इसप्रकार अन्यत्व भावना का चितवन करना चाहिये। * आत्मा शरीरादिक से भिन्न है, क्योंकि आत्मा चैतन्यमयी है और * * शेष द्रव्य अचेतन हैं। आत्मा की विभाव परिणति का आश्रय पाकर कर्मों * *का बन्ध हुआ। उदयीभूत कर्मों के फल से शरीरादि परद्रव्यों का संयोग हुआ। जिसके साथ संयोग हुआ है, उसका वियोग भी होता है। आत्मा का आत्मा से कभी वियोग नहीं होता। जिनका आत्मा से वियोग होता है, वे आत्मा के नहीं होते । * कर्म अनादि है, इसलिए संयोग भी अनादिकालीन है। फिर भी **********[९५ ********** 恭毕染塔染长路路路路##柴玲珍珠杂杂杂杂杂

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