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******** light! ******** * वचनों को तीर्थंकर की वाणी के समान सत्यतत्त्वप्ररूपक मानना चाहिये। * * जैनतत्त्वमीमांसा का आधार नयपद्धति है। प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी को
नयों की विवक्षा को समझ लेना चाहिये ताकि आचार्यों के मन्तव्य सहज * रूप से समझ में आ सके। * धर्माधर्मादि द्रव्य जीव और पुद्गल को बलात् गतिस्थित्यादि * नहीं कराते। जब जीव और पुदगल निज उपादान से गमन करते हैं, तब *
धर्मद्रव्य उनकी गति में सहकारी कारण बनता है। जब जीव और पुद्गल *निज उपादान के कारण ठहरते हैं, तो उनके ठहरने में अधर्मद्रव्य
सहकारी कारण बन जाता है। जब जीवादि द्रव्य निज उपादान से * अवकाश पाने लग जाये, तो आकाश अवकाशदान का सहकारी कारण * बनता है। जब अपनी उपादान शक्ति के कारण जीवादि द्रव्य परिणमन * * करते हैं, तो कालद्रव्य उनके परिणमन में सहयोगी बन जाता है। जब *
जीव विभाव भाव धारण करता है, उसकी विभाव व्यंजन पर्यायें अभिव्यक्त
होने लगती है, तब पुद्गल निमित्त बन जाता है। * आप ही बताओ, यदि धर्मद्रव्य गति का कर्ता हो तो वह सिद्धों * को गमन क्रिया में परिणत करा सकेगा ? अथवा, यदि पुद्गल आत्मा *
को शरीर प्रदान करता है तो क्या वह पुदगल द्रव्य सिद्धों को स-शरीरी* बना सकता है ? नहीं ना ! अतः यही मानना उचित है कि एक द्रव्य दूसरे
द्रव्य के कर्त्ता नहीं होते हैं। हाँ- द्रव्यों में निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध * अवश्य होता है, जिसके फल से वे परिणमन करते हुए द्रव्य के निमित्त * कारण बन जाते हैं। जिन जीवों को तत्त्वबोध नहीं होता, वे जीव * *अनध्यवसाय के द्वारा अपने को परद्रव्यों का कर्ता, भोक्ता अथवा स्वामी * * मान लेते हैं। फलतः वे जीव स्व-द्रव्य के वैरी बन जाते हैं। वे जीव * * जिनेन्द्र देव के मत से बाह्य होने के कारण मिथ्यादृष्टि होते हैं।
अतः आचार्य प्रवर योगीन्द्रदेव समझाते हैं कि -
पटदृष्टिं विशोषयेत् - ब्रह्म यानि आत्मा। जो ब्रह्म * से निष्ठ यानि प्रामाणिक निष्ठावान या श्रद्धालु हैं, ऐसे यतिवरों ने * * आत्मकर्म को छोड़ दिया है, परदृष्टि को विशुद्ध कर लिया है। एतदर्थ * * आचार्य भगवन्त कहते हैं कि अब उन्हें परचिन्ता से क्या प्रयोजन है ?
अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं है। **********[९० /**********