Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 97
________________ ******** लालशान ******* * संसार के मानसिक, वाचनिक एवं कायिक दुःखों का मूल * कारण देह ही है। अतः देह के ममत्व को त्यागना चाहिये, आचार्य श्री पूज्यपाद लिखते हैं . मूलं संसारदुःखस्य, देह एवात्मधीस्ततः। त्यवान् प्रविष्यमनर्वहिरवाशाहोन्द्रियः ।। (समाधिशतक - १५) अर्थात् : इस जड़ शरीर में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के समस्त * दुःखों का कारण है। इसीलिए शरीर में आत्मत्व की मिथ्याकल्पना से * निवृत्त होकर बाह्य विषयों से इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकता हुआ अन्तरंग * * में अर्थात् आत्मा में प्रवेश करे। * शंका : देह ही देही है. ऐसा मानने में क्या दोष है ? समाधान : देह ही देही है, ऐसी , एकान्त मान्यता जीव और अजीव तत्त्वविषयक विपरीत श्रद्धान है। अतत्त्वश्रद्धानं मिथ्यादर्शनम्। अतत्त्व * * का श्रद्धान मिथ्यादर्शन है। मिथ्यादर्शन अनन्त संसार का कारण है। * अतएर देह और देही की एकत्वरूप मान्यता संसार का कारण है। * देह रूपी है, आत्मा अरूपी है। जब दोनों ही द्रव्य परस्पर विपरीत है, तो वे एक कैसे हो सकते हैं ? अतः देह और आत्मा को एक * मानना परम अज्ञान है। देह ही आत्मा है , ऐसी मान्यता जैन मतानुयायी नहीं अपितु * * चार्वाक मतावलम्बी रखते है। जैन लोग शरीर और आत्मा को कथंचित् *भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानते हैं। * देह और आत्मा को सर्वथा एक मानने पर देह का आत्मा से वियोग होने पर आत्मा का नाश मानना पड़ेग। आत्मा का कभी नाश नहीं * हो सकता है। आत्मा का विनाश मानने पर पाप-पुण्य, धर्म- अधर्म, * पूर्वभव के संस्कार, जातिस्मरण, सदाचार और विविध प्रकार के तपानुष्ठान * आदि सबके अनर्थकारी ठहरने का प्रसंग प्राप्त होगा, जो कि प्रत्यक्ष. * अनुमान और आगम प्रमाण से बाधित है। अतः शरीर और आत्मा को एक नहीं मानना चाहिये। स्वयं ग्रंथकार के शब्दों में जो देह को ही जीव मानता है, उसका * ध्यान करना निष्फल है। ***********८७********** 球球球球接球*******杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂杂路*****珍珠玲玲 ****

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