________________
देहाज्जीवं पृथक् कृत्वा, चिन्तयेद्विचक्षणः । देहस्यैव च देहित्वे, ध्यानं तत्र विनिष्फलम् ॥३२॥ 'अन्वयार्थ :
( विचक्षणः) बुद्धिमान ( देहात् ) देह से (जीवम्) जीव को (पृथक् ) अलग (कृत्वा) करके (चिन्तयेत् ) चिन्तन करे (च) और (तत्) उस (देहस्य) देह को (एव) ही जो (देहित्वे) आत्मा मानता है (तत्र) वहाँ (ध्यानम्) ध्यान (विनिष्फलम् ) निष्फल है।
अर्थ: बुद्धिमान मनुष्य देह से जीव को अलग करके चिन्तन करे क्योंकि देह ही जीव है, ऐसा मानने वाले जीव का ध्यान निष्फल है। भावार्थ: आत्मा और शरीर में निम्नलिखित
है।
क्र.
१.
*** शागांकुशम् ******
ध्यान की सफलता
५.
६.
८.
शरीर
पौद्गलिक है। अशुचिभूत है।
प्रतिक्षण नश्वर है।
ज्यों का त्यों बना रहता है। सतत क्षरणशील है।
आधेय है।
आत्मा
चेतन हैं।
अत्यन्त निर्मल हैं
अविनश्वर है।
द्रव्य है।
अनन्त गुणों का पिण्ड है। एक अखण्ड व शुद्ध द्रव्य है।
९.
आनन्दालय है।
१०. अनेक गुणों से युक्त स्वद्रव्य है।
है।
आधार है।
विभाव व्यंजनपर्याय है। नवद्वारों का पिंजरा है। जीव की सप्तधातुओं से विनिर्मित अशुद्ध पर्याय है।
शौचालय के समान है।
दोषों का समूह है।
परद्रव्य है।
इस अन्तर का बोध न होने के कारण मूढात्मा देह-देही के एकत्व के भ्रम को मन में बसा लेते हैं। यही भ्रम दुःख का कारण है। **** C**********