Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

View full book text
Previous | Next

Page 92
________________ ********ानापशम् ******** रा-मामी गुपिणिरामा आत्मचिन्तन का फल न जापेन न होमेन नाक्षसूत्रस्य धारणात् । * प्राप्यते तत्परं तत्त्वं प्राप्यं त्वात्मविचिन्तनात् ॥३०॥ * *अन्वयार्थ : *(तत्) वह (परम्) परम (तत्वम्) तत्त्व (न) न (जापेन) जाप से (न) न* होमेन) होम से (न) न (अक्षसूत्रस्य) अक्षसूत्र के (रूद्राक्ष आदि की। माला (धारणात्) धारण करने से (प्राप्यम्) प्राप्त होता है (तु) निश्चय से वह (आत्मविचिन्तनात्) आत्मचिन्तन से (प्राप्यम्) प्राप्त होता है * अर्थ : वह परम तत्त्व जाप, होम या अक्षसूत्र के धारण करने से प्राप्त कर १ नहीं होता। * उसकी प्राप्ति आत्मचिन्तन से ही होती है। * भावार्थ : ध्यान अवस्था है, क्रिया नहीं। ध्यान के लिए जितनी भी* * क्रियाएँ कही गयी हैं वे सब ध्यान का साधन हैं। साधन और साध्य * के मध्य का अन्तर न समझ पाने के कारण अनेक अनर्थ हो रहे हैं। * भारत में ध्यान पर अनेकानेक मत-मतान्तर बन चुके हैं। उन्होंने * अपनी मान्यताओं के प्रचार हेतु अनेक प्रकार के ग्रंथ रच लिये हैं। अपने * * द्वारा कल्पित विधि को वे परमात्म तत्त्वोपलब्धि का एकमात्र कारण * घोषित करते हैं। ध्यान अन्तस् का विषय है, अतः बाह्य से उसके । सत्यपने अथवा मिथ्यापने का बोध नहीं होता, फलस्वरूप साधक भटक जाता है। * कल्पित ध्यानग्रंथों ने साधक को भाँति-भाँति ललचाने का * * प्रयत्न किया है, जिसके कारण साधकगण सत्य से विमुख हो जाते हैं। * जहाँ सत्य नहीं, वहाँ आनन्द कहाँ ? यही कारण है कि उनकी ध्यान । साधना पत्थर पर बोये बीज की तरह व्यर्थ हो जाती है। वर्तमान में ध्यान के नाम पर सम्मोहन के प्रयोग हो रहे हैं, जो *क्षण दो क्षण साधक को भरमाते हैं । जब साधक वास्तविकता के * * धरातल पर उतर आता है, तब वह अपने को वहीं पाता है, जहाँ वह * **********८२**********

Loading...

Page Navigation
1 ... 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135