Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 90
________________ *******落染染染米*於**路带长 ******** ज्ञानांकुशा ******** * शिशु अंधा और भीस होगा। * ५. यदि गर्भवती हँसमुख, सदाचारिणी और धार्मिक है, तो उससे उत्पन्न । होने वाला शिशु स्वस्थ, सुन्दर, प्रसबमना तथा सदाचार. बनता है। * सुशिक्षित नारी इस बात से पूर्ण परिचित होती है, अतः वह * * स्वस्थ शिशु की प्राप्ति हेतु निरंतर सजग रहती है। अथवा - दौड़ना, तैरना, जोर से बोलना, भय-उत्पन्न करने वाले दृश्य * *देखना आदि कार्यों से गर्भपात होने की संभावना होती है। ऐसी दुर्घटना न हो, एतदर्थ माता सतत प्रयत्नशील रहती है। * गर्भ में शिशु अधोमुखी होता है। माता के द्वारा बोझ उठाना, * कष्टप्रद कार्य करना, अत्यधिक धूमना इत्यादि कार्यों से शिशु को कष्ट * * पहुँचता है। माता सदैव यही प्रयत्न करती है कि गर्भस्थ शिशु को किसी * प्रकार का कष्ट न होव। उसीतरह योगी कुंभक, रेचक और पूरक नामक प्राणायाम को *करते हुए प्रतिसमय निज चैतन्यमयी आत्मा का ध्यान रखता है। * शंका : कुंभक, पूरक और रेचक का क्या स्वरूप है ? * समाधान : आचार्य श्री शुभचन्द्र लिखते हैं - द्वादशान्तात्समाकृष्य यः समीर: प्रपूर्यते। स. पूरक इति ज्ञेयो वायुविज्ञानकोविदैः।। निरुणद्धि स्थिरीकृत्य श्वसनं नाभिपङ्कजे। कुम्भवनिर्भरः सोऽयं कुम्भकः परिकीर्तितः।। निःसार्यतेऽतियानेन यत्कोष्ठाच्छ्वसन शनैः। स रेचक इति प्राज्ञैः प्रणीतः पवनागमे।। (ज्ञानार्णव - २६/२४ से. २६)* * अर्थात् : द्वादशान्त अर्थात् तालुओं के छिद्र से अथवा द्वादश अंगुल* * पर्यंत से खींच कर पवन को अपनी इच्छानुसार अपने शरीर में ग्रहणा* * करने को वायुविज्ञानी पण्डितों ने पूरक कहा है। उस पूरक पवन को स्थिर करके नाभिकमल के अन्दर जैसे घड़े को भरा जाता है, उसीप्रकार * रोककर रखने को अर्थात् नाभि से अन्य स्थानों में वायु को न जाने देने * को कुंभक कहा है। जो अपने कोष्ठ से पवन को अति प्रयत्नपूर्वक धीरे-* **********८०********** *************************************

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