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******* ज्ञानांकुशम् *********
योगियों की स्थिति
गर्भिणी च यथा नारी, पश्मत्यन्तः स्थसत्त्वकम् | एवं योगी स्व- देहस्थं स्वं पश्येद रेचकादिभिः ||२९|| अन्वयार्थ :
( यथा) जैसे (गर्भिणी) गर्भवती (नारी) स्त्री (अन्तःस्थ ) अपने भीतर के (सत्वकम् ) शिशु को (पश्मति) देखती है ( एवं) उसीप्रकार (योगी) योगी (स्वदेहस्थम् ) शरीर में स्थित (स्वम् ) स्व को (रेचकादिभिः) रेचकादि के द्वारा (पश्येत्) देखें।
अर्थ: जैसे गर्भवती स्त्री सतत अपने उदरस्थ शिशु का ध्यान रखती है, उसीप्रकार योगी स्व- देह में अपनी आत्मा को रेचकादिक के द्वारा देखता है।
विशेष :
१. च शब्द श्लोक में पादपूर्ति हेतु आया है।
२. मेरे विचारानुसार गाथा में आया पश्मति शब्द अशुद्ध है, उसके स्थानपर पश्यति होना चाहिये !
भावार्थ: जननी उदर वस्यो नव मास मनुष्यगति में सर्वप्रथम अवस्था गर्भावस्था है। नौ माह तक जीव माता के गर्भ में निवास करता है: माता * के क्रियाकलापों का असर शिशु पर पूर्णतः पड़ता है। माता के आचारविचारों को शिशु आत्मसात् कर लेता है। यह बात अब वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं।
वैज्ञानिकों के अनुसार
१. यदि गर्भवती माता श्रृंगार में व्यस्त रहती है, तो उत्पन्न होने कला * शिशु चर्मरोगी होता है।
२. यदि गर्भवती स्त्री रतिक्रीड़ा में अत्यधिक रुचि लेती है, तो उसका होने वाला शिशु व्याभिचारी अथवा नपुंसक होगा ।
३. यदि गर्भवती स्त्री दौड़ती है, तो शिशु अपंग होगा ।
४. यदि गर्भवती महिला उत्तेजक दृश्य को बार-बार देखती है, तो उसका
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