Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 88
________________ ********************* ****** :-शाम सु*ि ** * सदैव स्मरण में रहता है। सत्य व पक्ष में महान अन्तर होता है। यथा * क्र. सत्य . पक्ष १. समता को बढ़ाता है। १. राग-द्वेष को बढ़ाता है। २. अनेकान्त का पक्षधर है। २. एकान्त का उपासक है। ३. अनाग्रही होता है। ३. आग्रही होता है। ४. शाश्वत व सम्यक है। ४. मिथ्या है। ५. मध्यस्थ है। ५. कलह का बीज है। * पक्षपाती सत्य और असत्य के विवेक से विहीन होता है, *जबकि योगी महाविवेक सम्पन्न होते हैं। अतः वे पक्षपातविनिर्मुक्त * कहलाते हैं। 2. मरमालाविवर्जित : लाभ और अलाभ सब कर्माश्रित है। जब लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है, तो जीव को धन-धान्यादि *इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है। इससे विपरीत जब लाभान्तराय कर्म * * का उदय होता है, तो जीव को इष्ट वस्तुओं का लाभ नहीं होता । लाभ * और अलाभ की इन विषम स्थितियों में योगी हर्ष-विषादादि नहीं करता,* * अपितु कर्मों का उदय-अनुदय समझकर समचित्तवान हो जाता है। अतः वह लाभालाभविवर्जित है। *. ग्रयापरित्यक्त : माया के अवास्तविकता और कपट ये दो अर्थ * हैं। जब माया का अर्थ अवास्तविकता करते हैं, तो मायापरित्यक्त का * अर्थ होगा आरम्भ और परिग्रह से हीन। मुनि असि, मसि, कृषि, सेवा, * * शिल्प और वाणिज्य के द्वारा हिंसा के कारणभूत ऐसे आरंभ नहीं करते हैं तथा चौदह आभ्यन्तर परिग्रह व दस बाह्य परिग्रह इन चौबीस परिग्रहों *से वे रहित हो चुके हैं। * अवास्तविकता का दूसरा अर्थ धोखाधड़ी या जालसाजी होता * * है! योगीगण इन्द्रजालादि क्रियाएँ नहीं करते इसलिए वे मायापरित्यक्त * हैं। माया का अर्थ जब कपट किया जायेगा, तो मायापरित्यक्त शब्द का * अर्थ होगा कपट से रहित वृत्ति वाले। स्वहृदयप्रच्छादनार्थमनुष्ठानं । माया। अपने मन के विचारों को छिपाने का नाम माया है। योगी उससे * पूर्णतया मुक्त होता है। योगी जानते हैं कि माया दुर्गति का (तिर्यंचगति * *का) कारण होता है। अतः मुनि अपने मन को पूर्ण निर्मल बनाते हैं। * ******** ** **********

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