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******** notice ज्ञानांकुशम्
******** 'दशाओं में मनुष्य के हाथ में कुछ भी नहीं आ पाता प्रत्युत वह दुःख का पात्र ही बनता है और मिलने वाले वर्तमानकालिक अवसर को भी गवाँ बैठता है। ध्यान के द्वारा ध्याता अतीत और अनागत से अपना सम्बन्ध समाप्त कर लेता है। फलतः ध्याता का राग-द्वेष क्षीण होने लगता है। यही कारण है कि ध्याता शान्त तथा शक्तिसंपन्न हो जाता है।
यदि मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाये, तो मनोरोगों का मूल कारण राग और द्वेषमयी विभाव परिणति है। मन की चंचल उठापटक मनोरोगों को उत्पन्न करती है। ध्यान राग-द्वेष को विनष्ट करता है। अतः ध्यान मनोरोगों को रोकने की आधारशिला है।
वर्तमान वैज्ञानिकों का मानना है कि शरीर में कुछ चैतन्यकेन्द्र हैं। जीवन का सम्पूर्ण विकास चैतन्यकेन्द्रों में निहित है और ध्यान उन चैतन्यकेन्द्रों को अगृत करने में समर्थ है। अक्ष ध्यान के हाथ जीवन का समग्र विकास होता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने पर पता चलता है कि विभाव भाव हमारे आध्यात्मिक जीवन के लिए कंटक के समान हैं। ध्यान विगत में किये गये दोषों का विशोधन करता है। अतः ध्यान ही 'वास्तविक प्रतिक्रमण है। ध्यान से काय का ममत्व स्वयमेव विसर्जित 'हो जाता है। इसलिए ध्यान ही श्रेष्ठ कार्यात्सर्ग है। ध्यान में राग-द्वेष का विलय हो जाता है। उसके फलस्वरूप आस्रव और बन्ध नहीं होता तथा संबर और निर्जरा होती है। अतः ध्यान ही मोक्षमार्ग है। पण्डित प्रवर आशाधर जी ने लिखा है। इष्टानिष्टार्थ मोहादिच्छेदाच्चेतः स्थिरं ततः । ध्यानं रत्नत्रयं तस्मात्तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ।। (अनगारधर्मामृत - १ / १४४ ) अर्थात् इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोहादि को नष्ट करने से चित्त स्थिर होता है। उससे ध्यान होता है। ध्यान से रत्नत्रय की प्राप्ति होती है । रत्नत्रय से मोक्ष होता हैं और मोक्ष में जाने से सुख की प्राप्ति होती है । ध्यान के ऐसे अचिन्त्य माहात्म्य को जानकर बुद्धिमान पुरुषों . का कर्त्तव्य है कि वे ध्यान में लीन हो जायें ताकि अव्यय पद को प्राप्त किया जा सके।
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