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******** दिवा:* सम्यग्ज्ञान से युक्त अल्पच्चारित्र या अल्पतप भी महाफल देने में सक्षम हो * जाते हैं, इसके विपरीत ज्ञान से हीन चारित्र और तप तो विषकणिका से
युक्त भोजन की भाँति आत्मघातक है। ज्ञानरूपी अमृत से अभिसिंचित
आत्मतत्त्व ही मोक्षलक्ष्मी का वरण करने में सक्षम हो पाता है। विषय,, * कषाय और मोहोकरूपी रोग को नष्ट करने के लिए सम्यग्ज्ञान से बढ़ *कर कोई औषधि नहीं है।
जैसे हंस मानसरोवर के तटपर ही क्रीड़ा करते हैं, उसीप्रकार सम्पूर्ण गुण-यश और सिध्दियों रूपी हंस ज्ञानसरोवर के तटपर ही क्रीड़ारत रहते हैं।
आचार्य अमितगति लिखते है कि - ज्ञानाद्वितं वेत्ति तत: प्रवृत्ती। रत्नत्रये संचित कर्ममोक्षः।। ततस्ततः सौख्यमबाधमुच्चै स्तेनात्र यत्नं विदधाति दक्षः।।
(सुभाषितरत्नसंदोह - ८/५) * अर्थात् : प्राणी ज्ञान से अपने हित को जानता है, उससे उसकी रत्नत्रय है
में प्रवृत्ति होती है। वह प्रवृत्ति उसके संचित कर्मों का नाश कर देती है। * उससे निर्बाध महान सुख प्राप्त होता है। इसलिए चतुर पुरुष सम्यग्ज्ञान* * को प्राप्त करने का सतत प्रयत्न करते हैं। * कुशल स्वर्णकार के हाथों में पहुँचा हुआ स्वर्ण अग्नि के संसर्ग
को पाकर सम्पूर्ण किट्टकालिमा से रहित शुद्ध हो जाता है. उसीतरह तप * रूपी स्वर्णकार आत्मारूपी स्वर्ण को ज्ञानरूपी अग्नि के द्वारा कर्म* कलंकों से मुक्त करा देता है। * रत्नत्रय में सम्यग्ज्ञान को दूसरे क्रमांक पर लिया गया है* * क्योंकि वह सम्यग्दर्शन का कार्य और चारित्र का कारण हैं। द्वितीय होते
ए भी वह अद्वितीय है क्योंकि मोक्षमार्ग का बोध हुए बिना उसपर श्रद्धान नहीं होता तथा बोध के बिना आचरण का तो प्रश्न ही नहीं * उठता। अतः सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिये। *********** * ********
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