________________
********
है। अतः ध्यान के समान तप नहीं है।
अतः
ध्यान पूर्वकृत् पापों का प्रतिक्रमण है। ध्यान के द्वारा वर्तमान में भविष्यकालीन दोषों का प्रत्याख्यान किया जाता है. ध्यान ही प्रायश्चित्त तप है। ध्यान आत्मा को आत्मा के निकट ले जाता है, ध्यान ही विनय है । (विशेषरूपेण नयतीति विनयः । अर्थात् आत्मा को जो विशेषरूप से मोक्ष की ओर ले जावे वह विनय है।) गुणानुराग पूर्वक सेवा करना वैयावृत्ति है। ध्यान आत्मा की सच्ची सेवा है, अतः ध्यान ही वैयावृत्ति तप है। स्वतत्त्व का अध्ययन करना स्वाध्याय है। ध्यान के द्वारा आत्मा स्वतत्त्व का अन्वेषण करता है, अतः ध्यान ही स्वाध्याय तप है। बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्गतप है। ध्यान सम्पूर्ण परिग्रहों को दूर करता है, अतः वही व्युत्सर्ग तप है।
चारों प्रकार के आहार का त्यागरूप अनशन, भूख से कम खानेरूप अवमौदर्य, नियमपूर्वक भोजन करने रूप वृत्तिपरिसंख्यान, छह रसों के परित्याग रूप रसपरित्याग ये चारों तप ध्यान के समय में • विकल्पों से हीन प्रवृत्ति के कारण स्वयमेव फलप्रद हो जाते हैं। एकान्त में शय्या और आसन विविक्तशय्यासन है। ध्यान के समय में आत्मा परकृत विकल्पों से तथा पर के सम्बन्ध से विविक्त होता है। अतः विविक्तशय्यासन तप भी स्वयमेव घटित हो जाता है।
आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी का निर्भ्रान्त कथन है यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्यापकारकम् । (इष्टोपदेश १९)
अर्थात् जो कार्य जीव के लिए उपकारी होते हैं, वे कार्य नियम से शरीर के लिए अपकारी होते हैं।
ध्यान जीव का उपकार करता है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि ध्यान के कारण शरीर को क्लेश होता है। अतः ध्यान के द्वारा कायक्लेश तप की सिद्धि स्वयमेव हो जाती है।
उपर्युक्त विवेचन से यह सिद्ध हो जाता है कि ध्यान के समान अन्य कोई तप नहीं है क्योंकि ध्यान की सिद्धि होने पर शेष ग्यारह तप * स्वयमेव सिद्ध हो जाते हैं। ***************
ज्ञानकुशम्
-