Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 80
________________ ******** ज्ञानांकुशाम् ******** * बना है। अतः गुरु यानि भारी। ध्यान की महिमा अन्य सभी तपों में भारी* * है और ध्यान का फल भी अन्य तपों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। अतः ध्यान सच्चा गुरु है। ४. गृह धातु का आवाज दना यह भी एक अर्थ है। ओ शिष्य को * स्वात्मज्ञान प्राप्ति हेतु आवाज दे वही गुरु है। ध्यान यह कार्य करता है. * अतः ध्यान ही सम्यग्गुरु है। * ग्रंथकार कहते हैं कि ध्यान के समान गुरु नहीं है। . ध्यान के सम्मान मिकर नहीं है -- एक सच्चा मित्र सतत अपने मित्र को प्रसन्न करने का, उसको कापथ से बचाने का तथा उसके दोषों *को दूर करने का प्रयत्न करता है। ध्यान आत्मा को स्वात्मानन्द देकर * प्रसन्न करता है, उसको संसारमार्गरूपी कापथ से बचाने का तथा उसके * द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूपी दोषों को दूर करता है | अतः ध्यान के समान मित्र नहीं है। ४. ध्यान के सम्मान तप नहीं है - पण्डितप्रवर आशाधर जी ने लिखा है - तपो मनोऽक्षकायाणां, तपनात्सन्निरोधनात् । निरुच्यते दगाद्याविर्भावायेच्छानिरोधनम् ।। यद्वा मार्गाविरोधेन कर्मोच्छेदाय तप्यते। अर्जयत्यक्षमनसोस्तत्तपो नियमक्रिया।। (अनगारधर्मामृत - ७/२-३) * अर्थात् : मन, इन्द्रियाँ और शरीर के तपने से अर्थात् इनका सम्यक् * * रूप से निवारण करने तथा रत्नत्रय को प्रकट करने के लिए इच्छा का * निरोध करने को तप कहते हैं। रत्नत्रयरूप मार्ग में किसी प्रकार की हानि न पहुँचाते हुए *शुभाशुभ कर्मों का विनाश करने के लिए जो तपा जाता है अर्थात् * इन्द्रिय व मन को तपाया जाता है वह तप है। रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग में शुभाशुभ कर्मों का नाश करने के लिए * * ध्यान में मन को एकाग्र किया जाता है और इन्द्रियों का संयमन किया * जाता है। मन के रुक जाने से इच्छाओं का निरोध स्वयमेव हो जाता *********[७०**********

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