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******** * सम्यग्ज्ञान से आत्मशुद्धि * यथा च काञ्चनं शुध्दं, दग्ध्वा पिण्डस्य बन्धनम् । * जीवोऽपि हि तथाभूतं, सम्यग्ज्ञानेन शुध्दयति ॥२३॥ * * अन्वयार्थ : * (यथा) जैसे (काञ्चनम्) सुवर्ण (पिण्डस्य) पिण्ड के (बन्धनम्) बन्धन * * को (दग्ध्वा } जलाकर (शुद्धम्) शुद्ध (अभूतम्) हो जाता है तथा) वैसे *ही हि) नियम से (जीवः) जीव (अपि) भी (सम्यग्ज्ञानेन) सम्यग्ज्ञान से
(शुद्ध्यति) शुद्ध होता है * अर्थ : जैसे सुवर्ण अपने साथ लगे हुए बन्धन को जलाकर शुद्ध हो * * जाता है, उसीप्रकार आत्मा भी सम्यग्ज्ञान से शुद्ध होता है।
विशेष : कारिका में प्रयुक्त च शब्द पादपूर्ति का हेतु है। * भावार्थ : इस कारिका में सम्यग्ज्ञान का महत्त्व प्रदर्शित किया जा रहा * * है। सम्यग्ज्ञान को परिभाषित करते हुए महर्षि समन्तभद्र लिखते हैं -*
अन्यूनमनतिरिक्तं, याथातथ्यं विना च विपरीतात् । निःसन्देहं वेद, यदाहुस्तज्ज्ञानमामिनः ।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार . ४२)* * अर्थात् : जो न्यूनाधिकता से रहित हो, यथार्थ स्वरूप हो, विपरीततादि * दोषों से रहित हो तथा सन्देह से रहित हो उसे आगमियों ने सम्यग्ज्ञान * कहा है। * जैनागम में सम्यग्ज्ञान को आत्मा के समस्त गुणों का नायक * माना है। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का निजगुण है। अन्य * मतावलम्बी ज्ञान और आत्मा का समवाय सम्बन्ध है ऐसा मानते हैं। * जैनागम उसे उस रूप में स्वीकार नहीं करता। ज्ञान व आत्मा का तादात्म* * सम्बन्ध है, अतः वह आत्मा का स्थायी स्वभाव है। * निजगुण या स्वभाद उसे कहा जाता है कि जो सदैव अपने गुणी *
के आश्रय से रहता है। आत्मद्रव्य को छोड़कर शेष पाँच द्रव्यों में ज्ञानगुण **********६३ **********
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