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********* झालांकुशा ******** * अर्थात् : निज परमात्मतत्त्व का सम्यक्श्रद्धान, सम्यग्बोध और *
सम्यगाचरणरूप शुद्ध रत्नत्रय परिणाम का भजन भक्ति है। * निश्चय चैत्यभक्ति के लिए ग्रंथकार ने दो विशेषण दिये हैं। * *अ. परम प्रसंसनीय : जिस पुरुष के द्वारा एकाध उपकार किया * * जाता है, जीव उसकी सतत प्रशंसा करता है। भक्ति तो समस्त आत्मगुणों
से साक्षात्कार कराती है,अतएव उसे ग्रंथकार ने परम प्रशंसनीय कहा है। *. अवतारक : जब आत्मा अपने स्वत्व को भूल गया तो वह * राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोहादि भावों में उलझ गया। उन वैभाविक भावों * से कर्मों का आगमन हुआ। आगन्तुक कर्मों ने आत्मा के साथ रहने की * स्थिति जब पूर्ण की, तब वे कर्म उदयगत हुए। उदयीभूत कर्म आत्मा को
सुख-दुःख रूप फल देते हैं। कर्मफल भोगते हुए आत्मा पुनः वैभाविक परिणति करता है। इसतरह आत्मा अनादिकाल से अद्यावधि पर्यंत * संसार सागर में उन्मज्जन-निमज्जन करता रहा। * जब निश्चयभक्ति प्रकट होती है, तो भ्रान्ति मिट जाती है। * * आत्मा सत्स्वरूपसे परिचित हो जाती है, उसे इस सच्चाई का ज्ञान हो * जाता है कि -
यथासौ चेष्टते स्था, निवृत्ते पुरुषाग्रहे। ___ तथा चेष्टोऽस्मि देहादी, विनिवृत्तात्पविभ्रमः।।।
(समाधिशतक - २२) * अर्थात् : जिसप्रकार स्थाण ही पुरुष है, ऐसे आग्रह से ज्ञानी जीव मुक्त हो * * जाता है, वैसे ही मैं देहादि से भिन्न हूँ ऐसा बोध मुझे हो गया है। *
निश्चयभक्ति के सद्भाव में भी उदयगत कर्म राग-द्वेष उत्पन्न नहीं कर पाते, वे निर्जीर्ण हो जाते हैं। आत्मरमण के प्रतिफलस्वरूप उत्पन्न
हुई परम ध्यानरूपी अग्नि कर्म के वन को जला देती है। कर्म नष्ट हो * जाने पर आत्मा शुद्ध होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतः भक्ति को * * भवसंतारक कहा गया है। * इसतरह चैत्य और चैत्यालय इन दोनों के यथार्थ स्वरूप को
जानकर देह से विविक्त, चैतन्य के आलय शुध्दात्मा के दर्शन करने का
प्रयत्न करना चाहिये। **********६२**********