________________
********* Snaigem!
********
१. सुवज्ञान : मतिज्ञान ने जाने हुए पदार्थों को जा विशेषरूप से जानता है वह श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान के मुख्य दो भेद हैं- अंगबाह्य और अंगप्रविष्ठ । अंगबाह्य अनेक प्रकार का है तथा अंगप्रविष्ठ के आचारांग आदि बारह भेद हैं।
:
१- अवधिज्ञान अव उपसर्ग पूर्वक धा धातु से कर्मादिसाधन में कि प्रत्यय लगने पर अवधि शब्द बनता है। जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा से रूपी पदार्थों को जानता है वह अवधिज्ञान है। जो ज्ञान अधिकतर नीचे के विषय को जाने वह अवधिज्ञान है। अथवा, जो परिमित क्षेत्रगत विषय को विषय करे वह अवधिज्ञान है।
अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ये दो भेद हैं। गुणप्रत्यय 'अवधिज्ञान को ही लब्धिनिमित्तज अवधिज्ञान कहते हैं। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान वर्धमान हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी और अननुगामी के भेद से छह प्रकार का है। अन्यप्रकार से देशावधि, सर्वावधि और परमावधि के भेद से अवधिज्ञान के तीन प्रकार हैं।
४- मन:पर्ययज्ञान मन की प्रतीति को लेकर अथवा मन का प्रतिसंधान करके जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह मनः पर्यय ज्ञान है। जो ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा से परमनोगत विचारों को जानता है वह मन:पर्ययज्ञान है। यह ज्ञान ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का है। ऋजुमति मनपर्ययज्ञान के तीन और विपुलमति मन:पर्ययज्ञान के छह भेद हैं।
५- केवलज्ञान : जो ज्ञान सब द्रव्यों को उनके समस्त गुण व त्रिकालवर्ती पर्यायों सहित युगपत् जानता है वह केवलज्ञान है। क्षायोपशमिक आदि इन्द्रियजन्य ज्ञानों की सहायता से रहित ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है । अथवा, जिसके लिए मन, वचन और काय के आश्रय से बाह्य और आभ्यन्तर विविध प्रकार के तप तपे जाते हैं, वह केवलज्ञान है।
ज्ञान के ये पाँच भेद व्यवहारनय की अपेक्षा से हैं, क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है जो एक ही है। अतएव ग्रंथकार का उपदेश है कि भेदकल्पना सापेक्ष इन पाँच ज्ञानों से उपयोग को हटाकर जो योगी अपने उपयोग को सहज ज्ञानरूप निज आत्मतत्त्व में अन्तलन करता है. वह योगी अनन्तसुख के आलय स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। ********************
*६०