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पाँच ज्ञान मतिश्रुतावधिश्चेति, मन:पर्यय केवलम् ।
ज्ञानात्मा मुक्तिरित्युक्तं, पञ्चादि परमेष्ठिनाम् ॥२१॥ * अन्वयार्थ : * {मति) मति (श्रुत) श्रुत (अवधि) अवधि (मनःपर्यय) मनःपर्यय (च) और *केवलम्) केवल (इति) इसप्रकार (ज्ञान) ज्ञानरूप (आत्मा) आत्मा (मुक्तिः )* * मुक्ति है। (इति) ऐसा (पञ्चादि) पंच (परमेष्ठिनाम्) परमेष्ठियों का * * (उक्तम्) कथन है! * अर्थ : मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इसप्रकार पाँच ज्ञान हैं। * ज्ञान ही आत्मा है। आत्मा का ज्ञानस्वरूप रह जाना ही मोक्ष है ऐसा * पाँचों परमेष्ठियों ने कहा है। * भावार्थ : ज्ञान आत्मा का प्रमुख गुण है। अनन्तगुणों में ज्ञान को ही * * प्रधानता क्यों दी गई है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए मैंने अपनी कृति * * में लिखा है -
यह जनरीति लोकविश्रुत है कि किसी एक प्रधान विशेषता * को विलोककर उसी नाम से व्यक्ति को सम्बोधित करे। जैसे कोई * शास्त्र पढ़ता हो, तो उसे पण्डित कहना। उस व्यक्ति में पण्डिताई को
छोड़कर अन्य भी कई विशेषताएं हैं, किन्तु पाण्डित्य उन सबका * प्रतिनिधित्व करता है। उसीप्रकार आत्मा में अनन्तगुण विराजमान * हैं। उन सभी गुणों में ज्ञानगुण नायक है। ज्ञान का व्यवहार प्रकट रूप
से अनुभूत है। अनन्त पदार्थों के समुदाय रूप इस महाविश्व में ज्ञान * से ही आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध है। जगत के निगूढ़तम * रहस्यों का उद्घाटन मात्र ज्ञान के द्वारा ही संभव है। ज्ञान ही आत्मा * * का सर्वस्व है। ज्ञान के बिना संसार में आत्मसंज्ञक की कल्पना ही * व्यर्थ है। इसलिए ही समयसार जैसे परमागमों में महर्षि कुन्दकुन्द * **********५८ ***********
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