Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 67
________________ ********धनांकुशम् **** सम्यक्चारित्र की श्रेणि में आते हैं। जो अपनी-अपनी जाति में उत्कृष्ट होता है, उसे उस उस जाति का रत्न कहा जाता है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्न की संज्ञा दी गई है क्योंकि मोक्षमार्ग में इन तीनों का महत्व अचिंत्य है। आत्मा रत्नत्रयात्मक होने से त्रितयात्मक है। वह रत्नत्रय आत्ममय है। अतः अभेदापेक्षया आत्मा एक ही है। नयों की चर्चा करने पर संग्रहनय से आत्मा एक है और व्यवहारनय से आत्मा त्रितयात्मक है अथवा निश्वयनय की अपेक्षा से आत्मा एक है तथा व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा त्रितयात्मक है। आचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने लिखा है सम्महंसणणाणंचरणं मोक्खस्स कारणं जाणे । यवहारा णिच्छयदो तत्तियमइयो णिओ अप्पा । । (द्रव्यसंग्रह अर्थात् : सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों के समुदाय की व्यवहार से मोक्ष का कारण जानो तथा निश्चय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप जो निज आत्मा है, उसको मोक्ष का कारण जानो। ३९) - आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव का स्पष्ट उद्घोष है ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित दंसणं जाणं । ण वि णाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धो । । ( समयसार अर्थात् ज्ञानी के दर्शन, ज्ञान, चारित्र ये तीन भाव व्यवहारनय से कहे जाते हैं। निश्चयनय से ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है, दर्शन भी नहीं है। अतएव वह शुद्ध है। व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय को जानकर तथा अनाग्रहता पूर्वक उन दोनों का अनुसरण करके ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति हो सकती हैं। अतः प्रत्येक आत्मकल्याणेच्छु जीव को नियमित रूप से रत्नत्रय की भावना करनी चाहिये। ५७ - ७)

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