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रत्नत्रय की भावना
सम्यग्दर्शनसज्ज्ञानचारित्रत्रितयात्मकम् । तेनात्मदर्शनं नित्यं, रत्नत्रयभावनाकर्त्तव्यम् ॥२०॥
अन्वयार्थ :
(तेन) वह (आत्मदर्शनम्) आत्मदर्शन (सम्यग्दर्शन) सम्यग्दर्शन (सज्ज्ञान) 'सम्याज्ञान (चारित्र) सम्यक्चारित्र (त्रितयात्मकम् ) त्रितयात्मक है। (नित्यम्) नित्य ( रत्नत्रय) रत्नत्रय की भावना) भावना (कर्त्तव्यम्) करनी चाहिये। अर्थ: आत्मा का वह दर्शन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र 'के भेद से त्रितयात्मक है।
आत्मा को नित्य ही रत्नत्रय की भावना करनी चाहिये। भावार्थ : इस कारिका में व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय की भावना करने का सदुपदेश दिया गया है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द भगवन्त लिखते हैंदंसणणाणचरिताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं । ताणि पुण जाण तिणि वि. अप्पाणं चेव णिच्छयदो । ।
(समयसार
१६) अर्थात् : साधुपुरुषों को दर्शन, ज्ञान और चारित्र निरन्तर सेवन करने योग्य हैं और उन तीनों को निश्चयनय से एक आत्मा ही जानो ।
भेदरत्नत्रय और अभेद रत्नत्रय की अपेक्षा से रत्नत्रय के दो भेद हैं। जब सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र की पृथक् पृथक् आराधना की जाती है, तब वह भेद रत्नत्रय की आराधना कहलाती है। जब यह जीव . सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप में अनुस्यूत एक आत्मद्रव्य की आराधना करता है, तब वह अभेद रत्नत्रयाराधना कही जाती है। सराग अवस्था में अर्थात् शुभोपयोग की भूमिका में आरूढ़ जीव 'भेदरत्नत्रय का अवलम्बन लेता है। वीतराग निर्विकल्प समरसी भाव में तन्मय जीव भेद को विषय नहीं करता, अपितु वह अभेद को विषय **********44**** *५५
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