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******** ज्ञानांकुशाम् ******** * प्रसंग प्राप्त होता है। * आत्मा चैतन्यतत्त्व है। वह समस्त पदार्थों का ज्ञाता है और * समस्त पदार्थ ज्ञेय हैं। ज्ञाता के अभाव में ज्ञेयों का कोई महत्व नहीं रह * जाता है। अतः आत्मा का नाश स्वीकार करने पर समस्त सृष्टि के * महत्वहीन होने का प्रसंग प्राप्त होता है। *द . शुद्ध : आचार्य श्री ब्रह्मदत्त ने लिखा है .
शुद्धाः सहजशुद्धज्ञायकैकस्वभावाः |
* अर्थात् : आत्मा शुद्ध अर्थात् स्वभाव से उत्पन्न जो शुद्ध ज्ञायकस्वभाव है उसका धारक है।
दो द्रव्यों का संयोग हो जाना द्रव्य का अशुद्ध होना है। * शुद्धद्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से आत्मा सम्पूर्ण द्रव्यों से असम्पृक्त है। * इसलिए आत्मा नित्यरूप से शुद्ध है। रागद्वेषरहितत्त्वाच्छुद्धः .. राग, S द्वेष से रहित होने के कारण आत्मा को शुद्ध माना जाता है। समस्त अन्य * द्रव्यों के भावों से आत्मा भिन्न है अथवा आत्मा कैवल्यभाव से सम्पन्न है * अतः वह शुद्ध है। * य . शुद्ध सम्पदा कर पद : आत्मा में अनन्तगुण हैं। वे सारे गुण कर्मों के द्वारा आच्छादित है । जैसे मेघमाला का आडम्बर दूर हो जाने
पर मेघाच्छादित सूर्य का प्रकाश और प्रताप प्रकट होता है और वह * गगनमण्डल में प्रकाशमान हो जाता है, उसीप्रकार कर्मरूपी मेघों के * तिरोहित हो जाने पर आत्मारूपी गगन में अनन्तगुणों की सम्पदारूपी * सूर्य अपने प्रकाश व प्रताप से दैदीप्यमान हो जाता है। जिसप्रकार स्वच्छ * दर्पण में अथवा निर्मल जल में किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखता है, उसीप्रकार शुद्ध आत्मा में सम्पूर्ण गुणः प्रकट होते हैं। प्रकट हुए आत्मगुणों को देखकर शुद्धसम्पदा का पद यह विशेषण प्रयुक्त हुआ है।
आत्मध्यान करने के लिए आत्मस्वभाव का समीचीन बोध होना * आवश्यक होता है क्योंकि आत्मज्ञान के बिना आत्मध्यान की सिद्धि नहीं * * हो सकती है। आत्मध्यान के ध्येयभूत आत्मज्ञान की आवश्यकता को * देखकर भव्य जीवों को आत्मस्वरूप समझाने के लिए पाँच विशेषणों से
आत्मा के विशिष्ट स्वरूप को इस श्लोक में व्यक्त किया गया है। ********** **********