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******** idoshdl ******** *भी विद्यमान है। अतः मैं अनन्तज्ञानसंपन्न हूँ - ऐसा कथन या चिन्तन* * मिथ्या नहीं है। ऐसे चिन्तन से ध्यानी पुरुष का आत्मगुणों के प्रति
उत्साह बढ़ता है। . दूसरा पक्ष यह भी है कि आत्मा ज्ञानमय है। ज्ञान और आत्मा
का तादात्मसंबन्ध है। अतः ज्ञान कहो या आत्मा कहाँ, एक ही बात है। * ज्ञान ज्ञेय को ग्रहण करता है और ज्ञेय अनन्त प्रदेशों में व्याप्त अनन्त *
गुण-पर्यायों से समन्वित छह द्रव्य हैं। जब ज्ञेय अनन्त हैं, तो उनको जानने T21इनमी अपिल है। अः क्षेत्रों को जानने की अपेक्षा से
आत्मा को अनन्तज्ञान संपन्न कहा है। * . समक्चमकायवर्जित : मनोवर्गणा से मन, भाषावर्गणा से* * वचन तथा आहारवर्गणा से शरीर निष्पन्न होते हैं। ये वर्गणाएँ पौदगलिक * * हैं। आत्मा पुद्गल द्रव्य से अत्यन्त भिन्न द्रव्य है। अतः वह पुद्गलों के द्वारा निर्मापित मन, वचन और काय से रहित है।
स . अत्ययविकत : अत्यय यानि नाश और विकल यानि रहित। * अत्ययविकल शब्द का अर्थ अविनाशी है। द्रव्य अविनाशी ही होते हैं। आचार्य श्री उमास्वामी महाराज लिखते हैं - नित्यावस्थितान्यरूपाणि ।
(तत्त्वार्थसूत्र ५/३) * अर्थात् : द्रव्य नित्य, अविनाशी और अरूपी होते हैं। * अविनाशी का अर्थ पर्यायों के परिणमन से रहितता नहीं है।*
द्रव्य तो परिणमन किये बिना एक समय भी नहीं रहते क्योंकि उनमें * उत्पाद, व्यय तथा धौव्य होता रहता है। नवीन पर्याय की उत्पत्ति और * पुरानी पर्याय का व्यय होते हुए भी द्रव्य अपना मूल रूप नहीं छोड़ता है।* * यही उसका अविनाशीपना है। आत्मा भी प्रतिसमय पर्यायान्तर कर रहा *
है, फिर भी आत्मा अपनी आत्मशक्ति का त्याग नहीं करता। अतः आत्मा * * अत्ययविकल है। * शंका : आत्मा का नाश मानने में कौनसा दूषण आता है ? । समाधान : सृष्टि छह द्रव्यों का समुदाय है। सृष्टि की रचना के लिए
सम्पूर्ण द्रव्यों का अस्तित्व आवश्यक होता है। आत्मा का यदि नाश माना * जाये, तो सृष्टि में पाँच द्रव्य शेष रह जाते हैं, जिससे सृष्टि के नाश का **********५३ *********
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