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* * *** हासापनिज *******
दोनों भी समानरूप से हेय होते हैं। परन्तु साधनामार्ग की दृष्टि से * के द्वारा अशुभ का विनाश किया जाता है तथा शुद्धस्वभाव में रत होर शुभ के विकल्प से मुक्त हुआ जाता है।
पुण्य और पाप को सर्वथा समान नहीं मानना चाहिये। दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने लिखा है -*
हेतुकाविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः। हेतु शुभाशुभौ भावी कार्ये चैव सुखासुखे।।
(तत्त्वार्थस्पर - ४/१० अर्थात् : हेतु और कार्य की विशेषता होने से पुण्य और पाप में अन्ती पुण्य का हेतु शुभभाव है। पाप का हेतु अशुभभाव है। पुण्य का कोई सुख है और पाप का कार्य दुःख है।
स्वयं आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने पुण्यक्रिया को इष्ट बताते और कहा है कि - घर बयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहि। छाया तवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं।।
___ (मोक्षपाहुड - २ अर्थात् : व्रत और तप के द्वारा स्वर्ग प्राप्त होना अच्छा है, परन्तु अपर और अतप के द्वारा नरक के दुःख प्राप्त करना अच्छा नहीं है। छ और धाम में बैठकर इष्टस्थान की प्रतीक्षा करने वाले लोगों में महान अन्तर पाया जाता है।
इस आशय का समर्थन आचार्य श्री पूज्यपाद ने भी किया।
वरं व्रतैः पदं दैवं, नावतर्भत नारकम् । * छायातपस्तयोर्भेदः, प्रतिपालयतोमहान्।। *
(इष्टोपदेशइन आगम प्रमाणों को देखकर एकान्त मान्यता का त्याग कर चाहिये तथा शुद्धस्वभाव में पहुँचाने के लिए हस्तावलम्बनस्वरूप पुरंग का सहयोग लेकर अनादि संसार के कारणभूत पापों का विनाश कर चाहिये। पापों का विनाश हो जाने पर आत्मा को मोक्षमार्ग में मिलेन
वाली सहायक सामग्री लक्ष्य की प्राप्ति में गति प्रदान करती है। *** ******* **********