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*** प्रावासामर जा* ******
आत्मा का स्वरूप
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अनन्तज्ञानमेवाहं, मनोवाक्कायवर्जितम्।
अत्ययविकलं शुद्धं, तत्पदं शुद्धसम्पदाम् ॥१९॥* अन्वयार्थ : (अनन्तज्ञानम्) अनन्तज्ञान (एव) ही (अहम्) मैं हूँ। और मैं (मनः) * (वाक) वचन और (कायवर्जितम्। काया से रहित हूँ। (अत्यय) नाश (विकलम्) रहित हूँ। (शुद्धम् शुद्ध हूँ और (तत्) उन (शुद्धसम्पदा शुद्ध सम्पदाओं का {पदम्) पद हूँ। अर्थ : मैं अनन्त ज्ञानसम्पन्न हूँ | मैं मन, वचन, काय से रहित हूँ। अविनाशी हूँ। मैं शुद्ध हूँ और शुद्ध सम्पदाओं का स्थान हूँ। भावार्थ : इस कारिका में ग्रंथकार ने आत्मा के लिए पाँच विशेषणों * प्रयोग किया है।
अ. अनन्तज्ञानसम्पन्न : केवलज्ञान में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विषयक सीमा नहीं है अतः केवलज्ञान अनन्त है। आत्मा केवलज्ञानमय होने से अनन्तज्ञानसम्पन्न है। शंका : अभी हमें केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है। इससमय में केवलज्ञान संपन्न हूँ ऐसा कथन या चिन्तन करना मिथ्या नहीं कहलायेगी समाधान : नहीं, चिन्तन या कथन का काम केवलज्ञान का नहीं, अपि मति आदि क्षयोपशमिक ज्ञानों का है। आत्मा का चिन्तन जिसतरह का होता है, आत्मा उसी रूप से परिणमन करने लगता है इस मानसविज्ञान को विलोक कर ऐसे चिन्तन करने का उपदेश है।
आत्मगुणों के कथन करने की विधियाँ दो प्रकार की है। * १. व्यक्तरुप - जो गुण वर्तमान में प्रकट हैं, वे व्यक्तगुण हैं। * २. अव्यक्तरूप - जो गुण स्वभावगत तो हैं, परन्तु अभी उन अभिव्यक्ति नहीं है , उन गुणों को अव्यक्त गुण कहते हैं। इन्हें शक्ति गुण भी कहते हैं।
आत्मा में जो केवलज्ञान नामक गुण है, वह शक्तिरूप में आ **********[५२**********