________________
******** Riisp!! ********
समयसार - १४६)* अर्थात् : जैसे लोहे की बेड़ी पुरुष को बांधती है और सुवर्ण की बेड़ी भी पुरुष को बांधती है, इसीप्रकार किया हुआ शुभ तथा अशुभ कर्म भी जीव को बांधता है।
कर्मास्रव के जितने भी कारण हैं, वे सब मुमुक्षुओं के लिए त्याज्य हैं। अतः शुभाशुभ कर्मों का नाश करने के लिए अपने टंकोत्किर्ण*
ज्ञायक शुद्धस्वभाव का आश्रय लेना चाहिये। * शंका : आचार्य श्री गुणभद्र जैसे समस्त महान आचार्यों ने पुण्यं कुरुष्व
(आत्मानुशासन-३१) अर्थात् -- पुण्य करो ऐसा उपदेश दिया है, जबकि * आप यहाँ उसे हेय बता रहे हैं। यह उचित कैसे हो सकता है ? *
समाधान : समस्त उपदेश प्रासंगिक होते हैं। अतः वस्तुस्वरूप के *अध्येता को तत्त्वमर्यादा जान लेनी चाहिये।
आप ही बताइए कि किसी नेत्ररोगी के नेत्रों का ऑपरेशन किया गया। डॉक्टर ने उसे हरी पट्टी लगाने की सलाह दी। टांके टूटने पर * डॉक्टर ने हरी पट्टी उतारने के लिए कहा और रोगी इस बात पर अड़* * जाये कि आपने ही हरी मही लगाने को कहा था, अब आप अपने असनों * * से क्यों पलट रहे हो ? तो क्या यह उचित है ?
जब कोई बालक पहली बार विद्यालय में जाता है. तो गुरुजी उसे अ-अनार का, ई-इमली का पढ़ाते हैं। जब वह बड़ा हो जाये, तब भी मेरे गुरुजी ने मुझे अ-अनार का पढ़ाया था यह तर्क दे कर, वैसा ही बोलता रहे, तो क्या कोई उसे बुद्धिमान कहेगा ? - किसी रोगी को कुशल वैद्य सर्वप्रथम साधारण भोजन करने का * * उपदेश देता है ताकि रोगी की पाचन शक्ति ठीक हो जाये। फिर पूर्ण * । स्वस्थ होने के लिए शक्तिवर्धक भोजन देता है। उसीप्रकार संसार में परिभ्रमण करने वाले भव्य जीव को परम कृपालु आचार्य परमेष्ठी अशुभ
से निर्वत्त होकर सर्वप्रथम शुभ में प्रवेश करने का उपदेश देते हैं। * * अतः पुण्यं कुरुष्व जैसे उपदेश प्रारंभिक शिष्य का उद्धार करते *
हैं, उसीप्रकार पुण्य का हेयत्व रूप वाणी का विन्यास साधक शिष्य के * विकास में कारण है। आत्मा का कल्याण चाहने वाले भव्य जीवों को
शुभोपयोग के माध्यम से शुद्धोपयोग को प्राप्त करना चाहिये। ********** *********
卷卷绕卷绕卷卷绕卷卷绕卷參经卷卷染卷张