________________
ज्ञानांकुशम् *****
ब्रह्मविहार का फल
6
गृहस्थो यदि वा लिङ्गी ब्रह्मचारी विशेषतः । ध्यानं करोति शुध्दात्मा मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९ ॥
अन्वयार्थ :
* (यदि) यदि (गृहस्थः) गृहस्थ (वा) अथवा (लिङ्गी) साधु जो (विशेषतः } विशेषतया (ब्रह्मचारी) ब्रहाचारी है वह (ध्यानम्) ध्यान (करोति) करता है तो (शुद्धात्मा शुद्धात्मा बनता है, वह (मुच्यत) मुक्त होता है (अत्र) इसमें (संशयः) संशय (न) नहीं है।
अर्थ: गृही हो अथवा निर्ग्रन्थ हो, जो विशेषतः ब्रह्मचारी है अर्थात् आत्मरमण करने वाला है. वह ध्यान करता है तो शुद्धात्मा बन जाता है। उसके द्वारा कर्मों का समूलोच्छेद होता है. इसमें संशय नहीं है। भावार्थ : ब्रह्मचर्य को परिभाषित करते हुए आचार्य भगवन्त श्री शिवार्य लिखते हैं
८७८)
जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो । तं जाण बंभचेरं विमुक्कपरदेहतित्तिस्स । । ( भगवती आराधना अर्थात् ब्रह्म शब्द को जीव कहा जाता है। उस ब्रह्म में ही चर्या ब्रह्मचर्य है। पराये शरीर सम्बन्धी व्यापार से विरत हुए मुनिराज अनन्त पर्यायात्मक जीव के स्वरूप का अवलोकन करते हुए उसी में रमण करते हैं, वह ब्रह्मचर्य है।
*********
२३
-
आचार्य श्री पद्मनन्दि ने भी लिखा है
आत्मा ब्रह्म विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्यं परम्, स्वाङ्गासंगविवर्जितैकमनसस्तद्ब्रह्मचर्य मुनेः । एवं सत्यबलः स्वमातृभगिनीपुत्रीसमाः प्रेक्षते वृद्धाद्या विजितेन्द्रियो यदि तदा स ब्रह्मचारी भवेत् ।। (पद्मनन्दिपंचविंशतिका-१२/२)