Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 45
________________ ******** सानाम् ******** ध्यानसाधना अत्यन्त विशुद्ध साधना है। यह साधना अत्यन्त कठिन भी है, क्योंकि इसके द्वारा मन का दिशापरिवर्तन करना है। चंचल, चपल और पापी मन को स्थिर करके आत्मकेन्द्रित करना है। इस * साधना में मन की शक्ति का उपयोग अध्यात्म की दिशा में करना होता * है। इसी साधना को जैनाचार्यों ने मनोगुप्ति कहा है। * उर्दू भाषा का एक शब्द है- अमन, उसका अर्थ है सुख। यदि इस * * शब्द पर गहराई से विचार किया आये, तो वह बड़ा रहस्यमयी प्रतीत * होता है। नञ् तत्पुरुष समास में नकार के आगे व्यंजनवर्ण आने पर न का अ हो जाता है। अर्थात् न - मन, अमन। * अमन का अर्थ सुख होता है, तो मन दुःखवाचक बन जायेगा। * * इसलिए मन पर विजय प्राप्त किये बिना सुख की प्राप्ति होना* * असंभव है। जबतक मन कार्यरत है, तबतक चंचलता है। जहाँ चंचलता है, वहाँ योग है। योग जहाँ कहीं भी होगा, वहाँ आस्रव त बन्ध अवश्य होगा। जबतक मन कार्यरत होगा, तब-त दह संकल्प-विकल्प के जाल बुनता रहेगा। जबतक संकल्प-विकल्प की तरंगें चलेगी. आत्मा राग* द्वेषमयी प्रवृत्ति में उलझेगा। राग और द्वेष से कर्मास्रव व कर्मबन्ध होगा। * * समय पाकर जब कर्म उदय में आते हैं. तो वे दुःख देते हैं। मन कारण * है व दुःख हैं उसके कार्य। कारण में कार्य का उपचार करने से मन को ही दुःख कहा है। जो मन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता, वह कषायों और * इन्द्रिया को भी नहीं जीत सकता और जो इन्द्रिय तथा कपायों को * * परास्त नहीं कर सकता, वह ध्यान के पावन क्षेत्र में प्रवेश नहीं ८* * सकता। * मन पर विजय प्राप्त करने के लिए अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन. * स्वाध्याय, व्रतपरिपालन, सत्संगति, संतोष, अनासक्तिभावना आदि उपाय * किये जा सकते हैं। मनोजय आत्मविजय का प्रथम चरण है। * जब यह जीत परविकल्पों से पूर्णतया मुक्त होकर मन को * * सच्चिदानन्द्र स्वरूपी, ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व के चिन्तन में लीन * करता है अर्थात् अन्तर्लीन प्रवृत्ति के द्वारा शुद्धात्मा का ध्यान करता है. . * तब वह शाश्वत पद के आलयस्वरूप निर्वाणसुख को प्राप्त कर लेता है। **********३५ ********** **************************************

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