Book Title: Gyanankusham
Author(s): Yogindudev, Purnachandra Jain, Rushabhchand Jain
Publisher: Bharatkumar Indarchand Papdiwal

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Page 57
________________ शालांकुशम् ******* आत्मा का कर्त्तव्य तस्मात्कर्म परित्यज्य, स्वात्मतत्त्वं समाचरेत् । आचरितात्मतत्त्वश्च स्वयमेव परो भवेत् ||१७|| • अन्वयार्थ : (तस्मात् ) इसलिए (कर्म) कर्मों का (परित्यज्य ) परित्याग करके (स्वात्मतत्त्वम्) आत्मतत्त्व का ( समाचरेत् ) आचरण करें (च) और (आत्मतत्त्वः) आत्मतत्त्व का (आचरिता) आचरण करने से जीव (स्वयमेव) स्वयं ही (परः) परमात्मा (भवेत्) होता है। अर्थ : कर्मों को छोड़कर आत्मा का आचरण करने वाला जीव स्वयं परमात्मा बन जाता है। - भावार्थ : मनुष्य अपने जीवन में जिसतरह का ध्येय लेकर चलता है. वह वैसा ही बन जाता है यह सृष्टियत नियम है। अतएव आत्मसाधक को उत्तम ध्येय बनाना चाहिये ऐसा पूर्वाचार्यों का अभिमत है। प्रतिसमय ध्याता यदि निज टंकोत्कीर्ण, अनन्तगुणों से संपन्न आत्मा का ध्यान करता है तो वह मोक्ष प्राप्त करता है। क्योंकि मोक्ष का लक्षण स्वात्मतत्त्व प्राप्तिरूपं मोक्षमस्ति । (स्वात्मतत्त्व की प्राप्ति स्वरूप मोक्ष है । } आत्मध्याता को ऐसा विचार करना चाहिये कि मैं अनन्तज्ञानस्वरूपी हूँ। मैं अनाकुलत्व लक्षण है जिसका ऐसे परम सौख्य से सम्पन्न हूँ। मैं परम वीतराग हूँ । ये शरीरादि परद्रव्य मेरे नहीं हैं। मैं परमशुद्ध द्रव्य चेतन हूँ। चिन्तन की प्रक्रिया को समझाते हुए आचार्य श्री अमितगति लिखते हैं कः कालो मम कोऽधुना भवमहं वर्ते कथं साम्प्रतम् । किं कर्मात्र हितं परत्र मम किं किं मे निजं किं परम् ।। · इत्थं सर्व विचारणा विरहिता दूरीकृतात्मक्रियाः । जन्माम्भोधिविवर्तपातनपराः कुर्वन्ति सर्वाः क्रियाः । । ********

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